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'तहरीर चौक' की राह पर जंतर-मंतर!

संदीप सिसोदिया

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, शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011 (16:14 IST)
PTI
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उत्तरी अफ्रीका में भी जनक्रांति की शुरुआत भ्रष्टाचार के विरोध से ही शुरू हुई। ट्युनिशिया के एक आम आदमी द्वारा भ्रष्टाचार को न सह पाने और जान देने के बाद उस आग में सिर्फ ट्युनिशिया ही नहीं बल्कि पर्यटकों का स्वर्ग मिस्र और तेलसंपदा से लबरेज लीबिया भी झुलस उठे।

गरीबी, मँहगाई और बेरोजगारी से त्रस्त जनता नेताओं, अफसरों और रसूखदारों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार से आजिज आकर केंद्रीय सत्ता के खिलाफ खड़े हो गए। भारत में हालात इतने खराब तो अभी नहीं हुए हैं, लेकिन लगातार बढ़ती मँहगाई और भ्रष्टाचार के मामलों को अगर इसी तरह से दरकिनार किया जाता रहा तो कोई बड़ी बात नहीं कि भारत दशकों बाद एक और बड़ी क्रांति की ओर अग्रसर हो जाए।

अण्णा हजारे को मिल रहे व्यापक जनसमर्थन को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय जनमानस तो जैसे किसी ऐसे ही क्षण का इंतजार कर रहा था। जरूरत थी तो एक साफ-सुथरे और कुशल नेतृत्व की। अण्णा हजारे ने तो सिर्फ सार्वजनिक जीवन में होने वाले भ्रष्टाचार पर प्रहार किया है और पूरे देश में खलबली मच गई। इस आंदोलन में किसी भी राजनीतिक पार्टी का दखल न होने से जनता में इसकी विश्वसनीयता बनी हुई है। अण्णा ने जहाँ कांग्रेस पर निशाना साधा तो भाजपा को भी नहीं बख्शा। अबतक यह आंदोलन दलगत राजनीति से परे है और यही वजह है कि इसे अपार जन समर्थन मिल रहा है।

वैसे तो बीते सालों में अपनी माँगे मनवाने के और भी आंदोलन हुए हैं, लेकिन रेल रोकने और सड़के जाम करने से होने वाली परेशानी के कारण मीणा और जाट आंदोलन सिर्फ अपने ही समुदायों का जनसमर्थन जुटा पाए। आम जनता तो बस इन आंदोलनों से परेशान ही हुई है।

जनता को साथ में लिए बिना कोई भी आंदोलन, कोई भी क्रांति की कल्पना भी नहीं की जा सकती और इतिहास गवाह है कि जिस भी आंदोलन में लोग स्वप्रेरणा से उतरे हैं उसने देश की दिशा और दशा पलट दी है। अण्णा हजारे का आमरण अनशन का गाँधीवादी तरीका आज भी कितना असरदार है, इसका अंदाजा देश के कई शहरों में उनके समर्थन में चल रहे सामूहिक उपवासों और प्रदर्शनों से लगता है।

महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धि के इस 73 वर्षीय गाँधीवादी समाजसेवी को महाराष्ट्र ही नहीं दिल्ली, मप्र, राजस्थान, यहाँ तक की दक्षिण भारत तक से समर्थन मिल रहा है। वस्तुत: अब यह आंदोलन सिर्फ किसी एक क्षेत्र का न होकर राष्ट्रीय बन गया है।

जंतर-मंतर पर स्वप्रेरणा से जुटे आम लोगों की तादाद इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक क्रांति का शंखनाद हो चुका है। कुछ लोग तो यह भी कहने से नहीं चूक रहे की जंतर-मंतर ही भारत का तहरीर चौक बन चुका है। हालाँकि अगर पूरी स्थिति का विश्लेषण करें तो भारत में उत्तरी अफ्रीका जैसे हालात तो नहीं दिखते पर बदलाव की बयार तो यहाँ भी शुरू हो ही चुकी है।

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