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मौन मुख मंडल पर स्वरों की आभा

पुरानी यादों में खोए पंडित भीमसेन जोशी

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, शनिवार, 22 मार्च 2008 (11:36 IST)
-चंद्रशेखर मुंजे
NDND
सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पं. भीमसेन जोशी इन दिनों अस्वस्थ हैं। वे अस्पताल में भर्ती हैं। कुछ दिनों पहले लेखक ने पुणे में उनसे मुलाकात की थी। यहाँ पेश है पंडितजी से हुई भेंट की यादगार अनुभूति।

पुणे के नवीपेठ इलाके के ठीक बीचोबीच बनी एक इमारत-कलाश्री। कहने को महाराष्ट्र के मीलों फैले भूगोल का एक छोटा-सा टुकड़ा, लेकिन स्वर के पुजारियों के लिए यह किसी तीर्थ से कम नहीं। यह बसेरा है हिन्दुस्तानी संगीत के शलाका पुरुष पं. भीमसेन जोशी का। बेशक भारत का यह नादपुत्र अब पहले की तरह यहाँ रागदारी का रोमांच नहीं बिखेर रहा है, न ही उनकी कंठ माधुरी से किसी संत कवि का कोई भक्तिपद भाव की सुगंध बिखेर रहा है।

86 की उम्र में अब साँसों का संघर्ष शुरू हो गया है। मगर मौन में भी उनके मुख मंडल के आसपास जैसे स्वरों की आभा तैरती नजर आती है। उनकी बैठक के आसपास सजे संगीत के साज बोलते से लगते हैं। इस नादमय मुखकांति से सामना करने का सौभाग्य कुछ दिन पहले ही उनके आवास पर हुआ था। अपार प्रश्नाकुलता समेटे उनके घर की सीढ़ियाँ चढ़ा था, लेकिन ख्वाहिश मन में ही रह गई। फिर भी गहरा संतोष हुआ, पंडितजी के चरणों में जब मैंने अपना शीश झुकाया।

यह किसी मंदिर में जाग्रत देवता से आशीष प्राप्त करने का सौभाग्य था। जाने कितने स्मृति बिंब आँखों में तैर गए। कितनी ही महफिलें याद हो उठीं। उसी समय पंडितजी को अंदर हॉल में आराम चेयर पर लाकर बैठाया गया। सफेद शर्ट और पजामा पहने इस महान संगीतकार के दर्शन हमारे लिए असीम आनंद की घड़ी थी। उन्हें पुष्पगुच्छ दिया और आने का कारण बताया। भोपाल की बातें हुईं। इस पर उन्हें बहुत बोलने की इच्छा हो रही थी। उन क्षणों में अत्यंत प्रयत्नपूर्वक इतना ही बोल सके 'अब मैं 86 का हो चुका हूँ, बातचीत करना, गाना, हमसे बिलकुल नहीं हो पाता', क्षणभर स्तब्धता, सभी मौन थे।

अस्वस्थता के कारण उनकी स्वर यात्रा पर विराम लगा है, परंतु उन्हें पूर्व जीवन में सजाई गई संगीत महफिलों की याद आती होगी और स्वरों का अनहद नाद मन को आंदोलित करता होगा। संभवतः वो संगीतमय यादें ही उनका सहारा रहा है। हम मंदिर में जाते हैं, भगवान के सामने नतमस्तक होकर, अपने मन की व्यथा कहते हैं पर भगवान कुछ नहीं बोलते। ऐसा ही इस भेंट के दौरान हुआ।

पंडितजी विराजमान थे उस कक्ष में उनके गुरुजनों के चित्र थे। सवाई गंधर्व, अब्दुल करीम खाँ व अन्य गुरु। कोने में सुस्ता रहे तानपुरे, निनाद करते से लगे। उसमें पंडितजी के षड्ज का पहला हुंकार घुलमिल गया और फिर एक बार ईश्वरीय संगीत में, मैं रम गया। जीवन में साधिकार गाए रागों को, गाने के लिए फिर शक्ति दो कहीं ऐसा तो नहीं कह रहे होंगे।

इस कष्ट से प्रवाहित संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, कबीर, ब्रह्मानंद की अमृतवाणी के मात्र स्मरण से इस अवस्था में भी जीवन आनंदमय हो रहा होगा। उन्हें मानसिक शांति मिल रही होगी। मेरे विचारों की श्रृंखला एकदम भंग हुई। कोने में रखे तानपुरे को किसी का धक्का लगा। तुंबा बज उठा। मैं इस दुनिया में वापस आया। अब वहाँ से चलने का समय हो चुका था। 'कलाश्री' से लौटते समय याद रह गया था वो सांगीतिक परिवेश, पंडितजी का सुगठित शरीर और अविस्मरणीय नादमय मुखकांति। (लेखक संगीत समीक्षक है)

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