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सत्‍यमेव जयते : मौत के बाद भी जिंदा रहती है जाति

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आमिर खान के बहुचर्चित कार्यक्रम 'सत्‍यमेव जयते' में इस रविवार को एक बहुत ही संवदेनशील मुद्दे की प्रस्तुति से पूरे देश के सामने यह सवाल छोड़ दिया कि आजादी के छह दशक बाद भी आखिरकार जाति भेद की परंपरा से हम भारतीय कब बाहर निकलेंगे? क्या ऐसे ही देश को आगे ले जाने के सपना साकार होगा?

इस कार्यक्रम में दलित समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव और अत्‍याचार पर मेहमानों ने अपने अनुभव साझा किए जो दिल में टीस पैदा कर गए कि तमाम प्रयासों के बाद भी जो हालात देश में 1940 में थे, वही हाल 2012 में भी हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय में संस्कृत की प्रोफेसर कौशल पवार ने बताया कि मैं वाल्मिकी समाज से हूं, लेकिन बचपन से मैंने अपनी जिंदगी में दलित होने का जो पाप भोगा है, उससे आज तक बाहर नहीं निकल सकी हूं।

कौशल ने बताया कि मेरे माता-पिता अनपढ़ थे लेकिन पिताजी चाहते थे कि मैं पढ़-लिख कर कुछ बन जाऊं। स्कूली दिनों से हरिजन की बेटी होने की काफी जलालत सही। यह जलालत कॉलेज तक आने तक जारी रही।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से मैंने डिग्री ली और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से संस्कृत में पीएचडी की। लेकिन जहां-जहां भी रही, वहां दलित होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। रूम मेट ने स्वीकार नहीं किया और क्या-क्या नहीं कहा गया...

मुझे आज अफसोस इसी बात का है कि जब मेरी दिल्ली विश्वविद्यालय में नौकरी लगी तो मेरा सपना सच होते देखने वाले मेरे पिता (जयपाल) इस दुनिया में नहीं रहे। दिल्ली जैसे शहर की हालत यह है कि जैसे ही मकान मालिक को मेरे खानदान (मेहतर) होने की जानकारी मिलती, उनका व्यवहार ही बदल जाता। आज भी कुछ नहीं बदला है।

कार्यक्रम में बताया गया कि यह सोच बिलकुल गलत है कि सिर्फ हिंदुओं में ही ऊंची जात और नीची जात की समस्या है, बल्कि मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म भी इससे अछूते नहीं हैं। दक्षिण भारत में कई जगह उच्च और निम्न जाति के चर्च अलग-अलग हैं।

आमिर के कार्यक्रम में बताया गया कि कई जगह तो दलितों के लिए अलग गुरुद्वारे तक हैं। मुस्लिम समाज में सिर्फ नमाज तक एका है, लेक‍िन मस्जिद की सीढ़ियां उतरते ही ऊंची जात और नीची जात का फर्क देखने को मिल जाता है।

जातिवाद यह जिन्न मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता। श्मशान और कब्रस्तान में सवर्ण और दलितों के भेद साफ दिखाई देता है।

कार्यक्रम में राजस्थान के समर्थपुरा गांव से रामपाल ने अपनी आप बीती बयान की कि उनकी दो बेटियों का विवाह हुआ और दोनों के दुल्हें घोड़ी चढ़कर आए। इससे पहले गांव में किसी भी दलित परिवार को घोड़ी चढ़कर बारात लाने की इजाजत नहीं थी क्योंकि ऊंची जात की दबंगई थी। रामपाल ने पुलिस की मदद ली और इसमें थाना प्रभारी मानवेंद्रसिंह चौहान का पूरा सहयोग मिला।

जस्टिस चन्द्रशेखर धर्माधिकारी ने बताया मैं जात-पांत को नहीं मानता। मेरे कंधे पर हाथ रखकर 4-5 बार गांधीजी घूमे हैं, जिसके कारण यह कंधा काफी मजबूत हो गया है। मेरा भतीजा जब अस्पताल में बीमार था और उसे खून की जरूरत थी। किसी भी धर्माधिकारी का खून भतीजे के ग्रुप से मैच नहीं कर रहा था, तब एक सफाई कामगार का खून मैच हुआ और उसकी जान बच गई।

1947 में देश के आजाद होने के बाद बलवंतसिंह पहले दलित आईएएस ऑफिसर हुए, लेकिन उन्हें भी जगह-जगह दलित जाति में पैदा होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। ऑफिस में ब्राम्हण नौकर था और वह उनका ग्लास अलग रखता था। मैं दौरे पर जाता तो मेरी जाति को लेकर उलाहना दिया जाता था। मैं इतना परेशान हो गया कि तंग आकर 1962 में नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

आमिर के शो में दलित बेसवाडा विल्सन भी आए थे और वे 'मैला ढोने' की प्रथा को बंद करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं कि भारत ने काफी तरक्की की है, लेकिन आज भी जातिवाद की खाई काफी गहरी है। इसमें सबसे बड़ा दोष सरकार का भी है। यद‍ि सरकारी कागजों में धर्म और जाति का कॉलम निकाल दिया जाए तो संभव है कि इस खाई को काफी हद तक पाटा जा सकता है। (वेबदुनिया)

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