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नजरअंदाज न हो जाए कहीं राखी का लिफाफा

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- विनती गुप्ता

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मैंने अपनी पड़ोसन मिसेस गुप्ता को आवाज दी। पूछा-"क्या राखियाँ आ गईं?" जवाब मिला-" पता नहीं (कुछ अनमना-सा स्वर लगा) मुझे उनसे इस जवाब की अपेक्षा नहीं थी क्योंकि वे प्रत्येक वर्ष सबसे पहले राखियाँ खरीदती थीं। मैं जब कहती इतनी भी क्या जल्दी है तो उनका जवाब होता- "जल्दी भेजो तो पहुँचने की निश्चिंतता रहती है। जितनी देरी से भेजो टेंशन ही रहता है, पता नहीं पहुँची भी या नहीं। फिर फोन करके बार-बार पूछना भी ठीक नहीं लगता।"

दुकानदारों को उनके बारे में भी पता था, वे सबसे पहली ग्राहक जो थीं। छोटे शहर में वैसे भी लोग जानने ही लगते हैं। परंतु इस बार उनका जवाब मुझे कचोट गया। लगा कोई बात है जो उनके मन को ठेस पहुँचा गई है। मन नहीं माना पूछे बिना। पूछने पर उनकी आँखें बरस पड़ी। थोड़े सामान्य होने पर उन्होंने बताया कि इस वर्ष जब मैं भाई के यहाँ गई तो मैंने अपनी भेजी हुई राखियों के लिफाफे को एक कोने में पड़ी रद्दी के बीच देखा।

बहनें स्वभाव से भावुक होती हैं। वे अपने सब गिले-शिकवे छोड़कर दौड़ पड़ती हैं भाई से मिलने। इसलिए भाइयों से यही अनुरोध है कि उस रिश्ते को जीवंत बनाए रखें। कहीं व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में यह खोकर न रह जाए।
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मन नहीं माना, सोचा देखूँ तो सही (राखी तो वैसे निकाल ली होगी) देखने पर पता लगा लिफाफा ज्यों का त्यों था जिसमें राखियाँ, कुमकुम अक्षत की छोटी-सी पुड़िया व चार लाइन की चिट्ठी थी। किसी ने लिफाफा खोलने की भी तकलीफ नहीं की। यह देखकर मन भारी हो आया। परंतु भाभी से पूछे बिना रह नहीं सकी। भाभी का जवाब सुनकर तो मन टूट ही गया। पता है उन्होंने क्या कहा-"हाँ लिफाफा आया था समय से पर वैसे ही हमने बहुत-सी अच्छी-अच्छी राखियाँ बच्चों के लिए खरीद ली थीं। सो आपकी राखियों की जरूरत ही नहीं पड़ी।"

जवाब सुनकर जब मैंने भाई की तरफ देखा तो उनके चेहरे पर भी कोई पश्चाताप का भाव नहीं था। मैं मन ही मन रो दी। किसी तरह अपने जज्बातों को काबू किया। सोचा काश यह पहले देख लिया होगा तो जल्दी समझ जाती। उस दिन से मैंने प्रण कर लिया अब राखी भेजूँगी तो नहीं। भाई यदि बँधवाने आए तो बाँध दो-वरना ठीक है।

मिसेस गुप्ता की आपबीती सुनकर मन भारी हो गया। आज के व्यावसायिक युग में क्या संबंधों या भावनाओं को भी पैसे के तराजू में तौला जाने लगा है। पता नहीं कैसे बहनें इस दिन के लिए अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से समय चुराती हैं। कितनी भावनाओं को बाँधकर वह राखी के साथ भेजती हैं और यदि उसका इतना निरादर हो तो मन कितना आहत होता होगा।

इस त्योहार पर बहन भाई से कुछ लेने नहीं अपने बचपन की यादों को जीने जाती है। पता नहीं क्यों श्रावण मास आते ही बहनों का मन पीहर जाने को मचल उठता है। माँ-पिता के रहने तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहता है। फिर बाद में भाई भी क्यों उन्हें भूलने लगते हैं शायद हमारे यहाँ राखी का त्योहार भाई-बहन को एक-दूसरे की याद दिलाने के लिए ही आता है।

बहनें स्वभाव से भावुक होती हैं। वे अपने सब गिले-शिकवे छोड़कर दौड़ पड़ती हैं भाई से मिलने। इसलिए भाइयों से यही अनुरोध है कि उस रिश्ते को जीवंत बनाए रखें। कहीं व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में यह खोकर न रह जाए। इस बार जो बहन की राखियों का लिफाफा आए तो उसे दुनिया की तेज रफ्तार में गुम न होने दें। उसे खोलकर देखें, आपको प्रेम, स्नेह और वात्सल्य के साथ-साथ सारा सुकून एक साथ हासिल हो जाएगा।

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