कबीरदास जैसे फकीर जो बुनते-बुनते फकीर बन गए। रैदास जैसे फकीर जो जूते सीते-सीते फकीर बन गए और यहाँ तक कि मीराबाई जैसी भक्त जो कृष्ण को भजते हुए फकीरी से भी आगे निकल गई थीं। सही मायने में मीरा की भक्ति में जो आलौकिक शक्ति है उसमें भी भवपार लगाने का संजीवनी सामर्थ्य है। मीराबाई ने अपनी काव्य रचना में लौकिक प्रतीकों और रूपकों को शामिल किया, लेकिन उनका उद्देश्य पारलौकिक चिंतन धारा के अनुकूल है। यही कारण है कि वह दोनों ही दृष्टियों से अपनाने योग्य के साथ- साथ रुचिपूर्ण और हृदयस्पर्शी भी है। मीराबाई के काव्य के भावपक्ष में यह भी भाव विशेष का दर्शन या अनुभव हमें प्राप्त होता है कि वे श्रीकृष्ण के वियोग में बहुत ही विरहाकुल अवस्था को प्राप्त हो चुकी थीं। सतगुरु की कृपा पर मीराबाई को अटूट विश्वास था। उनका कहना था कि इस भवसागर से सतगुरु ही उसे पार लगा सकता है।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु,
किरपा करि अपनायो।
जन्म-जन्म की पूँजी पाई,
जग में सभी परुवायो।
खरचै नहिं, कोई चोर न लेवै,
दिन-दिन ब़ढ़त सवायो।
सत की नाव,
खवेटिया सतगुरु,
भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
हरख, हरख जस गायो।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यद्यपि हम कबीरदास, राबिया, रैदास या मीरा की उत्तुंग ऊँचाइयों को नहीं छू सकते, फिर भी कलियुग की समस्त आपाधापियों के मध्य भी अपना ध्यान गागररूपी ईश्वर पर केंद्रित कर हम कुछ हद तक अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं।