Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

...जब विश्वामित्र ने पाया ब्रह्मर्षि-पद

हमें फॉलो करें ...जब विश्वामित्र ने पाया ब्रह्मर्षि-पद
WD

चारों तरफ ऋषियों के आश्रम थे। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुंधती से कह रहे थे, देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहाँ जाकर जरा-सा नमक माँग लाओ।

विस्मित होकर अरुंधती ने कहा- यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ समझ भी नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया। कहते-कहते उनका गला भर आया। पुरानी स्मृतियाँ जाग उठीं।

उन्होंने आगे कहा- मेरे बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना- शोभित रात्रि में वेद पाठ करते-फिरते थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम में लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया।

अरुंधती और भी चकरा गई। उन्होंने कहा- आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते।

webdunia
WD
ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा- आज भी विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहे तो उनके प्राण ले लेंगे। उधर अपना संकल्प पूरा करने के लिए विश्वामित्र हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले। उन्होंने वशिष्ठ की सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूँठ पर से हाथ की पकड़ ढीली हो गई।

सोचा, आह! क्या कर डाला मैंने! पश्चाताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौंडे गए और वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। इधर वशिष्ठ उनके हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले - उठो ब्रह्मर्षि, उठो। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया हैं।

विश्वामित्र ने कहा - आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिए। वशिष्ठ बोले अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।

विश्वामित्र वहाँ जा पहुँचे, जहाँ अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूँ जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किए हुए हूँ। तपोबल के गर्व से विश्वमित्र ने कहा, आप पृथ्वी को छोड़ दीजिए, मैं उसे धारण कर लूँगा।

अनंत देव ने कहा, अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूँ। और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूँ। पृथ्वी! रुक जाओ। फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई। अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।

विश्वामित्र बोले, क्षण भर के लिए वशिष्ठ के साथ रहा हूँ। अनंत देव ने कहा, तो उसी का फल दे दो।

विश्वामित्र बोले, अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूँ। और धरती स्थिर हो गई। तब विश्वामित्र ने कहा, देव! अब मुझे आज्ञा दें।

अनंत देव ने कहा, जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान माँग रहे हो?
विश्वामित्र क्रुद्ध हो गए। उन्होंने सोचा, इसका मतलब यह है कि वशिष्ठ मुझे ठग रहे थे।

वे वशिष्ठ के पास जा पहुँचे और बोले, आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा? वशिष्ठ बोले, अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता।

(श्री अरविंद की लिखी कहानी का संक्षिप्त रूप।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi