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धर्म संस्कृति के पुण्य प्रतीक वृक्ष

हमें फॉलो करें धर्म संस्कृति के पुण्य प्रतीक वृक्ष
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-द्विजेन्द्रनाथ सैग
इन वृक्षों को देखो और सराहो इनकी महानता को। कितने विशाल हृदय, उदार चेता और त्याग-बलिदान की भावना से परिपूरित हैं ये सब। जो भी याचक इनके पास आहार, आश्रय की कामना लेकर आता है, ये उसे कभी निराश नहीं लौटाते। फल, फूल, पत्ते, छाल, छाया, ईंधन, राख यहां तक कि अपने किसलय और नवांकुर तक देकर ये प्राणियों का कल्याण करते रहते हैं।

हमारी छतनार वैदिक संस्कृति और धार्मिक उत्कृष्टता का संपन्न प्रतीक हैं 'वृक्ष'। पुराणों तथा अन्य ग्रंथों में इस दिव्य प्रतीक के वर्ण-भेदों सहित उसकी गुणात्मक समृद्धियों और मानव जाति के हित में उसके त्यागमय योगदान का उल्लेख विस्तार से मिलता है। ऋषियों और सिद्ध साधकों को तो इसमें परमेश्वर की विभूतियों के स्पष्ट दर्शन तक हुए हैं। यही कारण है कि उपनिषदों (कठोपनिषद तथा मुंडकाउपनिषद) में ऋषिगण इसके समृद्ध साम-गान गा सके तथा जनमानस में उसे एक 'वंदित उपास्य प्रतीक' के रूप में प्रतिष्ठित भी करवा सके। श्रीमद्भागवत में भगवानश्रीकृष्ण कहते हैं-

'हे उद्धव! इन वृक्षों को देखो और सराहो इनकी महानता को। कितने विशाल हृदय, उदारचेता और त्याग-बलिदान की भावना से परिपूरित हैं ये सब। जो भी याचक इनके पास आहार, आश्रय की कामना लेकर आता है, ये उसे कभी निराश नहीं लौटाते। फल, फूल, पत्ते, छाल, छाया,ईंधन, राख यहां तक कि अपने किसलय और नवांकुर तक देकर ये प्राणियों का कल्याण करते रहते हैं। ऐसे अतिथेय, वरेण्य एवं प्रणम्य हैं।'

सामान्यतः सभी वृक्ष छायादार, फलदार, आरोग्यवर्धक वातावरण का निर्माण करने वाले तथा जीवनोपयोगी वस्तुएं प्रदान करने वाले होते हैं, लेकिन कुछ दैवीय अथवा अवतारी उपस्थितियों के साथ जुड़ जाने के कारण, पीपल, वट, कदम्ब आदि, अन्य वृक्षों की तुलना में अधिक पूजनीय हो गए हैं। पीपल की वरीयता के विषय में ग्रंथ कहते हैं-

'मूलतः ब्रह्म रूपाय मध्यतो विष्णु रुपिणः
अग्रतः शिव रुपाय अश्वत्त्थाय नमो नमः।'

-अर्थात इसके मूल में ब्रह्म, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव का वास होता है। इसी कारण 'अश्वत्त्थ' नामधारी वृक्ष को नमन किया जाता है।

पीपल पूजने के कई कारण भी हैं। पीपल की छाया में ऐसा कुछ आरोग्यवर्धक वातावरण निर्मित होता है, जिसके सेवन से वात, पित्त और कफ का शमन-नियमन होता है और मानसिक शांति भी प्राप्त होती है। वृक्ष की परिक्रमा विधान के पीछे कदाचित इसी सहज प्रेरणा का आग्रह है।

आर्य संस्कृति की अनेक स्वीकृतियों में उन्नत और आदर्श जीवन पद्धति की साधना एक उच्च कोटि का उद्यम मानी गई है। यज्ञ-हवन आदि इस प्रवृत्ति के प्रमाणिक साधन-उपसाधन हैं। यज्ञ में प्रयुक्त किए जाने वाले 'उपभृत पात्र' (दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में उपयोग की जाने वाली समिधाएं भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में अग्नि स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि प्रज्वलित किया करते थे।

ऐसे ही कई आधार वट वृक्ष की पूजनीयता के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं। सिद्ध लोगों के अनुभव हैं कि वट वृक्ष की छाया में एकाग्रता और समाधि के लिए एक अद्भुत और समीचीन वातावरण उपलब्ध होता है। भगवान शिव जैसे योगी भी वट वृक्ष के नीचे ही समाधि लगाकर तप साधना करते थे-

'तहँ पुनि संभु समुझिपन आसन
बैठे वटतर, करि कमलासन।'
(रामचरित मानस- बालकांड)

कई सगुण साधकों, ऋषियों, यहां तक कि देवताओं ने भी वट वृक्ष में भगवान विष्णु की उपस्थिति के दर्शन किए हैं-

'सृष्टिकर्ता यदा ब्रह्मा न लभे सृष्टि साधनम
तदाक्षयवटं, चैनं पूज्या मासकामदम।'

-अर्थात सृष्टि रचना के प्रारंभिक दौर में जब ब्रह्माजी को यथेष्ट परिमाण में उचित सामग्री उपलब्ध नहीं हुई तो उन्होंने विष्णु उपस्थिति से मंडित वट वृक्ष का पूजन-आराधन किया और आदि परमेश्वर से उचित सहायता प्राप्त कर अपना मनोरथ पूरा किया। 'मनोरथ पूर्ण हो' जैसे सिद्ध आशीर्वाद देने की क्षमता का प्रतिफल ही था यह, जिसने साध्वी नारियों में इस वृक्ष के प्रति आकर्षण और विश्वास को जागृत किया। इस प्रकार वट वृक्ष पूजने का यह विष्णु प्रयोजन एक प्रथा के रूप में चल पड़ा। कुलवधुएं ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन 'वट-सावित्री' का व्रत रखती हैं, तन्मय एकाग्रता के साथ वट के चारों ओर धागा लपेटकर अपने पतिव्रत संकल्प को मजबूत करती हैं। सावित्री-सत्यवान की प्रेरक कथा सुनती हैं तथा वैसा ही सद्गृहस्थ जीवन उन्हें भी उपलब्ध हो, यह मंगलकामना करती हैं।

उधर श्रीकृष्ण स्मृति से जुड़ जाने के कारण कदम्ब वृक्ष की पूजा-अर्चना भी की जाती है। कालिंदी के तट पर भगवान कृष्ण का बांसुरी बजाना और गोपियों के साथ महारास जैसे दिव्य प्रसंग आदि का एकमात्र साक्षी कदम्ब ही रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण के स्मरण के साथ ही हर संवेदनशील भारतीय के मन में श्रद्धा-भक्ति और समर्पण से ओतप्रोत एक महाभाव उमड़ पड़ता है। पवित्र भावना की इस पुण्य सलिला को प्रकट करने का सारा श्रेय भगवान के चिरनवीन अमृतोपदेश गीता को ही जाता है। गीता में भगवान बताते हैं-

'यह ब्रह्मांड एक क्षेत्र है, जिसमें जीवनरूपी एक अद्भुत घटना निरंतर घट रही है- सारे क्षेत्र की अनंत-अनंत सरणियों में और वो भी एक साथ। भगवान ने इस क्षेत्र को 'संसार वृक्ष' कहा है और पीपल के साथ इसकी तुलना की है। जिस प्रकार पीपल वृक्ष का अस्तित्व बनाए रखने के लिए जड़ें, तना, डालियां, पत्ते, कोपलें, अंकुर, फल जैसी संज्ञाएं ही केवल आवश्यक नहीं हैं बल्कि अधिक आवश्यक है 'जीवन ऊर्जा का एक सतत प्रवाह', जो इन अवयवों से युक्त प्रणाली में से होकर बह सके और वृक्ष को हरा-भरा रख सके। पीपल में यह क्रिया पत्तों द्वारा ऑस्मेटिक प्रेशर उत्पन्न करके संपन्न की जाती है। संसार वृक्ष की सत्ता के साथ भी ऐसा ही कुछ होता बताया गया है।'

इस संसार वृक्ष की जड़ें सर्वोपरि सत्ता ब्रह्म की प्रतीक हैं। इसका तना और डालियां गुणों द्वारा पोषित होते हैं। वेद-वेदोक्तियां इस वृक्ष के पत्ते हैं, जिनसे निश्रत होने वाला ज्ञान वृक्ष में जीवन ऊर्जा ग्रहण करने की क्षमता को जाग्रत करता है। (ऑस्माटिक प्रेशर की तरह)। इस वृक्ष की मूल कोशिकाएं सांसारिक कर्म-चेष्टाओं से चैतन्य होती हैं तथा कामनाओं का जल इसके पनपने में सहायता करता है। इंद्रियों द्वारा सेवित विषय वस्तुएं इस वृक्ष के कोपल अंकुरण स्थल हैं। यज्ञ, दान और तप इस संसार वृक्ष के फूल हैं, दुःख-सुख इसके कड़वे-मीठे फल तथा इस पर किल्लोल करने वाले पक्षी जैविक संज्ञाएं हैं। यहां तक का सारा तुलनात्मक विवरण तो पीपल वृक्ष से बिलकुल मिलता-जुलता है लेकिन इस संसार में कुछ अद्भुत विचित्रताएं भी उपस्थित हैं जिनका उचित समावेश इस तुलनात्मक प्रस्तुति में किया जाना आवश्यक है।

उदाहरणके लिए इस जीवन संसार में जो भी जैसा भी कुछ घट रहा है प्रति पल वह दर्शाता है कि यह संसार क्षणभंगुर है लेकिन गहराई से सोचने पर हमें ऐसी स्थितियां भी देखने में आती हैं जो इसकी उपस्थिति को शाश्वत और सनातन जैसा होने की पैरवी करती हैं। एक विचित्रता और भ्रम की स्थिति है यह।

शास्त्रों के मत से व्यक्ति के आवागमन, कर्म-सृजन एवं मरणोत्तर गूढ़ स्थितियों को पूरी तरह अपने में अंतरविष्ट कर लेने वाले क्षेत्र का नाम है संसार। ठीक से तो कोई भी नहीं जानता कि यह संसार कब, कहां और कैसे जन्मा होगा या इसके आकार, विस्तार और आयातनका निश्चित परिमाण क्या है? ये भी कि इसका अंत कब होगा या होगा भी कि नहीं। इसके निरंतर गतिमान रहने का क्या रहस्य है या कौन इसे नियंत्रित, संचालित कर रहा है, यह तथ्य भी सर्वथा अज्ञात है। वैचारिक परिधि के पार भी, जिसकी उपस्थिति एवं फैलाव की प्रतीति होती है, ऐसा संसार भला क्षणभंगुर कैसे हो सकता है। 'विचित्रता' और 'विरोधाभास' के इस मौलिक तत्व को भगवान ने पीपल वृक्ष को उलटा चित्रित करके अपनी तुलना में समाहित किया है। 'उलटा' अर्थात जड़ें ऊपरीमुखी तथा डालियों और पत्तों के बढ़ने का क्रम नीचे उतरते हुए। गीता के पंद्रहवें अध्याय में तथा कठोपनिषद में भी इस तुलनात्मक अध्ययन का विस्तार से निर्वहन किया गया है।

कहते हैं समुद्र मंथन के समय अमृत के साथ कालकूट विष भी जन्मा था। भगवान शिव ने इस विष को पीकर देवों और दानवों दोनों की रक्षा की थी। विज्ञान बताता है कि शिव ही की तरह वृक्ष भी कार्बन डाई ऑक्साइड रूपी कालकूट विष पीकर अमृततुल्य प्राणवायु का अनुदान वातावरण में फैला रहे हैं ताकि इस जैविक सृष्टि की रक्षा संभव हो सके। ऐसे वरेण्य हैं वृक्ष, जो सचमुच प्रणम्य हैं, शत्‌ शत्‌ बार प्रणम्य हैं।'

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