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नेकी से कमाया धन सच्ची आराधना

धार्मिकता से अर्जित धन करेगा विकास

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- आचार्य पं. शेखर शास्त्री मुसलगाँवक
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'धमार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः' ऋषियों ने मानव मात्र के लिए चार प्रमुख पुरुषार्थ या उद्देश्य निर्धारित किए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म के लिए धन परमावश्यक है। अभावग्रस्त न तो सुखी हो सकता है और न धर्मनिष्ठ।

गीता में भगवान कृष्ण धन का महत्व समझाने के लिए अपने को धन का देवता कुबेर और धन की देवी श्री बताते हैं और अर्जुन के लिए वे आदेश देते हैं कि 'धन-धान्य से संपन्न राज्य को भोग'। वेदों में संपत्ति और ऐश्वर्य के लिए अनेक प्रार्थनाएँ हैं। 'हम सौ वर्ष तक दुर्बल और दरिद्र न बनें, मैं मनुष्यों में तेजस्वी और धनवानों में अग्रगण्य बन जाऊँ, हम वैभव के स्वामी बनें, सौ हाथों से धन कमाओ, हजारों हाथों से उसे बाँटो। 'अपने पुरुषार्थ से धन का अर्जन करो' आदि...।

धन के बिना यदि धर्म नहीं टिक सकता तो धर्म के बिना धन भी नहीं टिक सकता। धार्मिक तरीकों से अर्जित धन ही मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है। बेईमानी से दूसरों का हक मारकर रिश्वत या चोर- बाजारी से, दूसरों को धोखा देकर या उनकी मजबूरी का अनुचित लाभ उठाकर धन कमाना पाप है, अधर्म का मूल है। ऐसा धन थोड़ी देर तो सुख देता है, पर बाद में दारुण दुःख देकर चला जाता है। 'धनाद्धर्मस्ततः सुखम्‌' का अभिप्राय धर्म और अर्थ के सामंजस्य में ही चरितार्थ होता है।

गृहस्थ जीवन में तथा लोकाचार के लिए निःसंदेह धन की नितांत आवश्यकता है, विशेष कर आज के युग में। पर मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु भी धन ही है, यह स्वीकार करना होगा। ईसा मसीह ने गलत नहीं लिखा है कि 'धनी का स्वर्ग में प्रवेश पाना असंभव है।' इसका अर्थ केवल यही है कि धन मनुष्य को इतना अंधा कर देता है कि वह संसार के सभी कर्तव्यों से गिर जाता है। धन का महत्व इसी में है कि वह लोक सेवा में व्यय हो। नहीं तो धन के समान अनर्थकारी और कुछ भी नहीं है।

श्रीमद्भागवत में कहा है-

स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥

एते पञचदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्‌।
तस्मादनर्थमथरिव्यं श्रेयोऽर्थी दूरनस्त्यजेत्‌

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धन से ही मनुष्यों में चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद, बुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ, शराब ये पंद्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं, इसलिए कल्याण कामी पुरुष को 'अर्थ' नामधारी अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए।

शास्त्रों का उपदेश है कि 'सब प्रकार की शुद्धि में धन शुद्धि श्रेष्ठ है। जिसने अन्याय से धन नहीं लिया, वही पूर्णतः शुद्ध है। जो केवल मिट्टी, जल आदि से शुद्ध हुआ है, किंतु धन से पवित्र नहीं है, वह अशुचि है।' सबसे अधिक चिंता हमें वित्त शुद्धि की ही करनी चाहिए, तभी बुद्धि हमारी निर्मल हो सकेगी और हमारा आचार-व्यवहार सात्विक बन सकेगा।

शास्त्रों में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि दूसरों को दुःख देकर प्राप्त किया हुआ धन कभी सुख नहीं पहुँचा सकता। रुपया सत्य, न्याय और परहित का ध्यान रखते हुए पवित्र साधनों से कमाया जाए। 'पाप की कमाई छोड़ दीजिए। कठोर परिश्रम, अध्यवसाय, पुण्य भाव और सेवाभाव रखकर ही कमाया हुआ धन मनुष्य के पास टिककर उसे स्थायी लाभ पहुँचाता है। बेईमानी की कमाई से कोई फलता-फूलता नहीं।'

महानिर्वाण तंत्र में लिखा है कि 'जो गृहस्थ धन कमाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता, वह अधर्मी है। यदि वह रुपया कमाता है तो उससे सैकड़ों लोगों को लाभ पहुँचेगा। उसके लिए नेकी से धन कमाना और खर्च करना आराधना ही है। एक गृहस्थ जो अच्छे तरीकों से धन कमाता है और उसे नेक कामों में खर्च करता है, वह मोक्ष पाने के लिए लगभग वही काम कर रहा है, जो एक साधु अपनी कुटिया में प्रार्थना द्वारा करता है।'

शास्त्र वेदों की उक्त घोषणाओं के बाद भी वर्तमान सामाजिक जीवन में कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता, अपितु आज की दुनिया असली ईश्वर को भूल गई है, वह केवल 'रुपया भगवान' को जानती है-

1- यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः।
2- सर्वे गुणाः कांञचनमाश्रयन्ते

विचारधारा का होश से कोई संबंध नहीं, यह गहरी बेहोशी है। उपरोक्त इंगित सामाजिक विचार मनुष्य की संकीर्ण शूद्र बुद्धि को ही परिलक्षित करती है। आजकल हमारे देश में काले धन का बहुत जोर है और उसे सफेद करने के अनेकानेक तरीके लोगों ने निकाल लिए हैं- जैसे मंदिर, मठ, सत्संग भवन तथा आश्रम बनवाना या धर्म-संस्थाओं और राजनीतिक पार्टियों को दान देना। इस प्रकार समाज की कुछ सेवा अवश्य हो जाती है, पर इससे भ्रष्टाचार, चोर बाजारी और काले धन के सृजन को बढ़ावा मिलता है और काले धन के सेवन या उपयोग करने वाले श्रेष्ठजनों की बुद्धि मलिन और कुंठित हो जाती है, जिसका सारे देश के राज और अर्थ तंत्र पर भयंकर प्रभाव होता है। किसी ने सही कहा है- 'सत्पुरुष आवश्यकता जानकर ही सेवा करने लगते हैं, किंतु निकृष्ट लोग गन्ने की तरह तभी सेवा करते हैं, जब उन्हें कुचला जाता है।

संसार में 'मुद्रा राक्षस' का महत्व एकदम समाप्त हो जाए, ऐसी संभावना नही प्रतीत होती। पर पैसे का विकास उसकी महत्ता तथा उसका राज्य रोका अवश्य जा सकता है। इसके लिए हमको अपना मोह तोड़ना होगा। स्थान पर परमार्थ, समृद्धि के झूठे सपनों के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर भगवान की शरण लेनी होगी। नहीं तो आज की हाय-हाय हमारे जीवन का सुख नष्ट कर चुकी है, अब हमारी आत्मा को भी नष्ट करने वाली है। हमें सब कुछ खोकर भी अपनी आत्मा को बचाना है, तभी हम सुखी हो सकेंगे।

ब्रिटिश लेखक थॉमस ब्राउन ने कहा था- 'अमीरी आपको लालची बना दे, इससे पहले परोपकारी बन जाइए।'

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