'महाभारत' में देवी सरस्वती को श्वेत वर्ण वाली, श्वेत कमल पर आसीन तथा वीणा, अक्षमाला व पुस्तक धारक स्वरूप को रचने का निर्देश दिया गया है। इस नियम-निर्देशों के अनुसार ही कलाकारों ने वाग्देवी को विविध शास्त्रसम्मत रूपों को पाषाण व चित्रों में अंकित किया।
इसी भाँति 'मानसार' में देवी सरस्वती को पद्मासन पर आसीन, शुद्ध स्फटिक के समान रंग वाली, मुक्ताभरण से भूषित, चार भुजा, द्विनेत्र, रत्नयुक्ता व पद्महार से सुशोभित, नुपूर पहने हुए तथा करंड मुकुट से शोभित माना गया है। सरस्वती रहस्योपनिषद् के ऋषि ने भगवती सरस्वती के स्वरूप का निरूपण इस प्रकार किया है-
'या कुन्देन्दु तुषार-हार-धवला या शुभ्र-वस्त्रान्विता
या वीणा-वर-दंड-मंडित-करा या श्वेत-पद्मासन।
या ब्रह्मच्युत शंकर प्रभृतिभिः देवैः सदा वंदिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्या पहा।'
जिनकी कांति हिम, मुक्ताहार, कपूर तथा चंद्रमा की आभा के समान धवल है, जो परम सुंदरी हैं और चिन्मय शुभ-वस्त्र धारण किए हुए हैं, जिनके एक हाथ में वीणा है और दूसरे में पुस्तक। जो सर्वोत्तम रत्नों से जड़ित दिव्य आभूषण पहने श्वेत पद्मासन पर अवस्थित हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रभृति प्रधान देवताओं और सुरगणों से सुपूजित हैं, सब श्रेष्ठ मुनि जिनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। ऐसी भगवती सरस्वती का मैं भक्तिपूर्वक चिंतन एवं ध्यान करता हूँ। उन्हें प्रणाम करता हूँ। वे सर्वदा मेरी रक्षा करें और मेरी बुद्धि की जड़ता इत्यादि दोषों को सर्वथा दूर करें।
साहित्यिक समारोह पर समारोह शुरू करने से पूर्व देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना होती है, वहीं कवियों ने अपनी रचनाओं में माँ सरस्वती को विशेष महत्व दिया है। चित्रकारों ने अपनी कूँची से सरस्वती के विभिन्न रूपों को समय-समय पर चित्रित किया है। पाषाण शिल्पियों ने पत्थर पर उकेरा है तो काष्ठ शिल्पियों ने खिड़कियों, दरवाजों या लकड़ी के खंभों पर उकेरा है सरस्वती के रूपों को। कलाकारों ने लोहा, फाइबर, चाक मिट्टी, संगमरमर तक के माध्यमों से विद्या, कला व संगीत की देवी को विभिन्न रूपों में ढाला है।
इस प्रकार ब्रह्मा परमात्मा से संबंध रखने वाली वाणी, बुद्धि और विद्या इत्यादि की जो परमशक्ति व्यवस्था करती है, उन्हें ही सरस्वती कहते हैं।