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भगवान शिव करेंगे कष्टों का निवारण

- आर.के. राय

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बारह राशियाँ एवं बारह महीने- इसका कुछ तात्पर्य है। एक पक्ष अर्थात् 15 दिनों में प्रतिदिन 12 राशियों के बीतने के हिसाब से 180 राशियों का भ्रमण पूरा होता है। अर्थात 15वें दिन तिथियों का स्वामी चन्द्रमा तथा दिन का स्वामी सूर्य 180 अंश एवं अगले 15वें दिन अर्थात 30वें दिन 360 अंश (एक साथ) की दूरी पर होते हैं।

देखिए, एक महीने में 360 अंश तथा एक साल में 360 दिन। इसका भी अपना महत्व है। चूँकि यह एक जटिल गणितीय प्रक्रिया है। हमारे प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने बहुत ही वैज्ञानिक गणना के उपरान्त किसी भी तिथि की विशेष महत्ता निर्धारित की हैं। श्रावण महीने में यदि श्रवण नक्षत्र वाले, श्रवण (कान) की बाधा अथवा रोग से पीड़ित, सौराष्ट्र वासी, सिंधली, सिंह राशि एवं सितयोनिगत (जिसका विवाह हो गया हो तो जीवन साथी से दुःखी या विवाह न होने के कारण दुःखी) थोड़ा श्रम करें, बहुत ही अच्छा परिणाम प्राप्त होता है।

वैसे तो श्रावण का महीना भगवान शिवशंकर का है। तथा उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता? किन्तु जिस प्रकार कोई विशेष मुहूर्त, किसी विशेष कार्य के लिए सिद्ध होता है। ठीक उसी प्रकार ऊपर बताए गए व्यक्ति अपने दुःख-कष्ट आदि का निवारण चाहते हैं। तो उनके लिए यह श्रावण माह एक अमोघ दैवी वरदान ही है।

महादेव का अति प्रिय परम पावन माह श्रावण अनेक अमोघ विशेषताओं से भरा पड़ा है। इसकी महत्ता का गुणगान करते हुए भोलेनाथ के दूसरे रूप नन्दी ने यहाँ तक कह डाला कि चाहे कितना भी शेष बड़ा पाप क्यों न हो? श्रावण के महीने में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ भगवान शिव का अभिषेक करने से उसी प्रकार दूर भाग जाता है जैसे सूरज को देख कर अंधेरा दूर भाग जाता है। शिव रहस्य, पार्वती विलास, रुद्रयामल, गूढ़योगिनी एवं रहस्यमंजरी में श्रावण महीने की पूर्णिमा को अद्भुत रुप से महिमा मंडित किया गया है।

कहा जाता है कि लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों देवियाँ अपने पतियों के रूप-रंग रहन-सहन एवं भूषण-आभूषण पर इतराती हुई पार्वती जी को चिढ़ाती थीं। उनका कहना था कि पार्वती का पति तो नशेड़ी है। श्मशान की अपवित्र राख लपेटे, जंगली साँप-बिच्छू शरीर पर लपेटे, नंग-धड़ंग एवं भिखारी की तरह रहता है। पार्वती जी को बहुत दुःख होता था।

एक बार देवासुर संग्राम में जब समस्त देवी-देवता हार गए। सभी को राक्षसों ने बंदी बना लिया। तो उनकी पत्नियाँ दुःखी हो गईं। सृष्टि के आदि क्रम में जब पार ब्रह्म परमेश्वर ने अपने आपको अपने तीनों गुणों में पृथक-पृथक विभक्त किया। तो तीनों गुणों ने मूर्तिमान होकर तीन देवों का आकार ले लिया। वे ही क्रम से ब्रह्मा विष्णु एवं महेश कहलाए।

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परमेश्वर की आज्ञा से जब तीनों देव अपने निहित कर्तव्य पालन करने लगे। तो कोई सृष्टि नहीं बन पाई। क्योंकि भगवान शिव के तामसी प्रभाव के कारण संसार बनने से पहले ही नष्ट हो जाया करता था। पुनः जब तीनों गुण एकीकृत हुए तो तामसी प्रकोप को शान्त करने के उपाय पर विचार हुआ। और यह निश्चित किया गया कि श्रावण माह की पूर्णिमा के दिन तामसी प्रवृत्ति अल्प प्रभाव वाली होगी। इसकी उपासना किसी भी सांसारिक विघ्न, बाधा का सहज ही निवारण कर देगी।

भगवान शिव ने यह रहस्य अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती को बता रखा था। और जब देवासुर संग्राम में सब लोग देवी, देवता, किन्नर, यक्ष तथा गन्धर्व आदि राक्षसों के बंदी बन गए तब पार्वती जी अकेले ही श्रावण माह की प्रतीक्षा करती रहीं। जब श्रावण माह की पूर्णिमा आईं तब पार्वती जी ने निर्धारित विधि से शिवलिंग का अभिषेक किया। उधर राक्षसों के बंदी गृह में रक्षक भगवान शिव के चारों तरफ भयंकर धधकती अग्नि ज्वाला से परेशान होकर उन्हें बंदी गृह से बाहर भेज दिए। तभी लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों देवियाँ दुःखी होकर रोने लगी।
निराश होकर वे दोनों भगवान शिव के पास पहुँचीं। भगवान शिव ने उन्हें सारी कहानी बताई। अब दोनों श्रावण माह की प्रतीक्षा करने लगी। जब इस बात का पता पार्वती को चला तो उन्होंने श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को ही भगवान भोलेनाथ को खूब भंग-धतूरा आदि खिलाकर अर्द्धचैतन्य कर दिया। तथा उनके सिर पर विराजमान चन्द्रमा को लेकर अपने मायके चली गईं। इधर दोनों ही देवियाँ लक्ष्मी एवं सरस्वती पूर्णिमा की प्रतीक्षा कर रही हैं। पूर्णिमा आ ही नहीं रही है। दोनों देवियाँ राक्षसों के कारावास में भगवान विष्णु के पास पहुँचीं। विष्णु जी ने सारा वृतान्त बताया। तब दोनों ही देवियों ने मिलकर पार्वती जी की पूजा कीं।

भगवान शिव की महिमा का रहस्य जाना। पार्वती जी ने चन्द्रमा को पुनः मुक्त किया। पूर्णिमा तिथि आईं। सबने मिलकर भगवान शिव का अभिषेक किया। भगवान शिव प्रसन्न हो गए। उनके त्रिशूल की तीनों नोकों से तीनों शूल- दैहिक, दैविक एवं भौतिक निकल कर राक्षसों के शरीर में घुस गए। राक्षसों के साथ लड़ाई हुई। राक्षस कमजोर हो गए। और उनकी हार हो गई। दोनों ही देवियों ने पूर्णिमा तिथि को यह आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति भगवान शिव का अभिषेक करेगा। उसके सारे दुःख संताप मिट जाएँगे। इस प्रकार दोनों देवियों ने पार्वती जी की महत्ता स्थापित की। तथा श्रावण माह की प्रभुता को सदा के लिए स्थिर कर दिया।

स्कन्द आख्यान में यह आया है कि -
'पारदं लिंगंकृत्वापूर्णा श्रावणोपस्थिता। रसान्नं पंचपयसंयुक्त्वा तदाभिषेकं च कूर्यात्‌।
धूपं दीपं चचन्दनं लिंगं परितः विलेपनम्‌। शिवानुकम्पाऽवाप्नोति यदीभिप्सितं नरः।'

अर्थात श्रावण के महीने में दाहिने हाथ के अंगूष्ठ एवं कनिष्का अँगुली को छोड़ शेष तीनों अंगुलियों की ऊँचाई के बराबर पारे के बने शिवलिंग पर 6 अन्न (सफेद तिल, काला तिल, जौ, चावल, चना एवं मिठाई) चढ़ा कर पंचपय अर्थात दूध, दही, घी, मधु एवं गुड़) से अभिषेक करता है। वह भगवान शिव की कृपा से अपनी इच्छा अनुसार वरदान प्राप्त कर लेता है।

'योगिनी रास'' में भी कुछ इसी तरह का वर्णन आया है। उसमें शिव के रुद्र यंत्र की श्रावण माह में शिवलिंग के ऊपर रखकर पूजने का विधान बताया गया है। श्रावण मास में सिंह राशि वालों के लिए पूर्णिमा का पूजन इसीलिए बताया गया है। क्योंकि श्रावण माह में सूर्य अपने स्वयं के घर अर्थात् सिंह राशि में ही रहता है। इस प्रकार भगवान शिव की श्रावणी पूर्णिमा के दिन अभिषेक से भगवान शिव के साथ ही चन्द्रमा, सूर्य एवं शिव की पूजा सहज ही हो जाती है।

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