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सत्य से उत्पन्न होता है धर्म

धर्म से ही जीवन में सुख संभव

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, गुरुवार, 6 जनवरी 2011 (11:08 IST)
- पंडित गोविन्द बल्लभ जोशी
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प्राणियों की सुख-समृद्धि और शांतिमय जीवन के लिए ही उपनिषदों-पुराणों में धर्मोपदेश किया गया है। जो धर्म की रक्षा करता है धर्म भी उसकी रक्षा करता है। महाभारत में भीष्म ने धर्म की जो गहन व्याख्या की है उससे यह भी पता चलता है कि धर्म और सत्य एक-दूसरे के पूरक हैं और सत्य से ही धर्म उत्पन्न होता है।

सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं च न विना धर्मात्‌ तस्माद धर्मपरो भवेत्‌।

आयुर्वेदाचार्य वाग्भट्ट कहते हैं कि धर्म के बिना मानव शारीरिक और सामाजिक दृष्टि से सुखी नहीं हो सकता। 'धारणात्‌ धर्ममत्याहुधर्मेण धार्यते प्रजाः।' प्राणियों के सुख का साधन ही धर्म है, यही प्रजा को भी संतुलित रखता है।

यद्भूतहितमत्यन्तं तत्‌ सत्यमिति धारणा
विपर्यकृतोऽधर्मः पश्य धर्मस्य सूक्ष्मतां

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जो विधान समाज के आचार-विचार में संतुलन बनाए रखता है उसी का नाम धर्म है। असंतुलन हो तो आपस में छीना-झपटी आरंभ हो जाती है।

महाभारत के एक प्रसंग में जब वेदव्यास से पूछा गया कि धर्म की उत्पत्ति कैसे होती है? वह बढ़ता कैसे है? दृढ़ और स्थिर कैसे रहता है और नष्ट कैसे हो जाता है?

व्यास उत्तर देते हैं कि सत्य से धर्म उत्पन्न होता है, दया और दान से बढ़ता है, क्षमा भाव से स्थिर रहता है, क्रोध और लोभ से नष्ट हो जाता है।

भगवान राम वन जाते समय माता कौशल्या से आज्ञा और आशीर्वाद लेने आए तो माता ने कहा कि हे राम मैं तुम्हें क्या आशीर्वाद दे सकती हूँ। बेटा राम! जिस धर्म का तुम प्रीति और नियमपूर्वक सदा पालन करते हो वही धर्म सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करेगा।

विनोबाजी के विचार में धर्म के चार चरण - श्रद्धा, प्रेम, त्याग और श्रम हैं। श्रद्धा के दर्शन समाज में आज भी सुलभ हैं परंतु प्रेम, त्याग और श्रम लुप्तप्राय हैं। आनंदस्वरूप ब्रह्म के कार्य-कारण यदि दुःख बढ़ रहा है तो इसका कारण है प्रेम, त्याग और श्रम का कम होना। अतः चतुष्पाद धर्म अपनाना आवश्यक है। वस्तुतः प्रत्येक मानव संसार में सुख चाहता है, जो धर्म द्वारा ही संभव है।

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