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अंधी मान्यताओं से मुक्ति की एक पहल

अंधविश्वास और स्वार्थपरता साथ-साथ

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- रघु ठाकुर
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दुनिया भर को अंधविश्वासों ने बहुत पीड़ाएं दी हैं, क्योंकि अंधविश्वास की शुरुआत तर्करहित विश्वासों से होती है। इसका प्रमाणित होना जरूरी नहीं माना जाता। अंधविश्वास के कारण अशिक्षा और अज्ञानता तथा मानवीय जानकारी एवं मानवीय शक्ति की सीमाएं रही हैं।

जब व्यक्ति और उसके पास बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं होती तथा चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पातीं। तब वह उसे ईश्वरीय प्रकोप मान लेता है और कुछ लोग आस्था-अनास्था के इस पचड़े से गूंथे देवी-पूजा के जरिए निदान निकालना चाहते हैं।

इसी प्रकार नदियों की बाढ़ और मौसमी तूफानों को भी ईश्वरीय नाराजगी मानते थे तथा पूजा-पाठ से ही उसका निदान ढूंढ़ते थे। कई बार घटनाओं के सामान्यीकरण से भी आम लोगों के मस्तिष्क में अंधविश्वासों की गहरी पैठ बन जाती है। जैसे कभी किसी एक व्यक्ति के सामने से एक बिल्ली अगर गुजर जाए और बाद में उसके साथ कोई दुर्घटना हो जाए तो बिल्ली का रास्ता काटा जाना अशुभ माना जाने लगा।

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यह चर्चा इतने व्यापक रूप से फैली कि गांव-गांव में बिल्ली के रास्ते काटते ही व्यक्ति खड़ा हो जाता, चालक गाड़ी खड़ी कर देते हैं और इंतजार करते हैं कि कोई दूसरा व्यक्ति निकल जाए यानी दुर्घटना का शिकार कोई अन्य व्यक्ति हो जाए। ऐसी सोच अंधविश्वास के साथ-साथ स्वार्थपरता भी है।

इसी प्रकार अगर किसी व्यक्ति की एक आंख खराब है तो उसे काना मान कर अशुभ माना जाता है। इस तरह की सोच ही अंसगत है।

देश और दुनिया में वर्तमान व्यवस्था को कायम रखने के लिए अंधविश्वासों ने बहुत योगदान दिया है।

'होई हैं वही जो राम रचि राखा, को कहि तर्क बढ़ावे शाखा।'

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रामायण की यह चौपाई जन-जन में ऐसा प्रभाव डाली हुई है कि लोगों ने अपने विकास, तरक्की और बदलाव के लिए उम्मीद करना ही छोड़ दिया है। सबका भाग्य पूर्व लिखित व निर्धारित है, अगर आज कोई तकलीफ में है तो पूर्व जन्म के कर्म हैं तथा बुरे कर्म करेंगे तो उनका दंड अगली योनि में मिलेगा या फिर, नरक के रूप में आदि-आदि। क्या होना है और क्या नहीं होना है, जब यह सब ईश्वरी मर्जी पर निर्भर है तो यह अकाट्य और अपरिवर्तनशील है फिर उसे चुपचाप स्वीकार करना ही समझदारी है।

जब यह मान्यता बन जाएगी तो फिर बदलाव की संभावना समाप्त हो जाएगी। आर्य समाज ने भी जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती के द्वारा मूर्ति पूजा के विरुद्ध हुई थी, ने भी इतना तो माना कि मूर्ति ईश्वर नहीं है, यद्यपि ईश्वरीय शक्ति को अतार्किक रूप से स्वीकार किया। गुरुनानक देव ने जब यह बहस की कि पैर किस स्थान की तरफ किए जाएं, क्योंकि ईश्वर या खुदा तो सर्वव्याप्त है। वह कहां नहीं है, तब उन्होंने धर्मस्थलों, मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों की सीमाओं को तार्किक आधार माना था।

आज समाज को वैज्ञानिक प्रवृत्तियों की आवश्यकता है, यानी तार्किकता की। समाज के विकास के लिए मशीन और तकनीक के साथ-साथ मानसिक विकास की भी आवश्यकता है। परंतु हमारा भारतीय समाज आम तौर पर मशीन और तकनीक के उपभोग में तो विकसित हो रहा है, परंतु अपनी अंधी मान्यताओं के मामले में बड़े पैमाने पर अतीत को झांकता है।

यह वास्तविक विकास नहीं है और ऐसा विकास शोषण और मुनाफे पर टिका होता है। आज देश के चौरासी करोड़ लोगों की क्षमता 20 रुपए प्रतिदिन से कम खर्च करने की हैं और दूसरी तरफ दुनिया की एक कंपनी की संपत्ति दुनिया के 161 देशों की कुल संपत्ति से अधिक है।

भारत के एक बड़े उद्योगपति के पास देश के लगभग 40 प्रतिशत गरीब आबादी की यानी लगभग 50 करोड़ जनता के बराबर संपत्ति है। परंतु वे 50 करोड़ लोग इस अंधी मान्यता के साथ बंधे बैठे हैं कि उनकी गरीबी और दरिद्रता का कारण उनके पिछले जन्म के अपराध हैं। उनके जीवन और भाग्य में कोई बदलाव संभव नहीं। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति समाज को अंधी मान्यताओं से मुक्त कराने के लिए पहल और प्रयास करती रही है तथा कुछ प्रयोगों के माध्यम से इसका खंडन भी करती रही है। जिसके लिए वह बधाई की पात्र है।

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