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उज्जैन की गढ़कालिका देवी

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भारत की सांस्कृतिक राजधानी उज्जैन तीर्थ नगरी के रूप में लब्ध प्रतिष्ठित है। यह नगरी मंदिरों की नगरी कहलाती है। कहा जाता है कि यदि बोरी भर चावल लेकर एक-एक मुट्ठी चावल भी यहाँ अवस्थित देवी-देवताओं को चढ़ाया जाए तो भी चावल कम पड़ जाता है।

तंत्र-मंत्र की इस भूमि पर भूतभावन भगवान महाकालेश्वर अधिपति के रूप में विराजित हैं, वहीं प्रसिद्घ गढ़कालिका देवी भी विराजमान हैं। वे उस पुरातन भूमि में बैठी हैं, जहाँ पुराण प्रसिद्घ अवंतिका नगरी बसी हुई थी।

कहा जाता है कि गढ़कालिका सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक महाकवि कालिदास की आराध्य देवी रही हैं। उनकी साधना से ही प्रसन्न होकर गढ़कालिका ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया था। यह मंदिर शहर के बाहर एक गढ़ पर बना होने के कारण इस स्थान को गढ़ कहा जाता है।

'मालवा की हृदय स्थली अवंतिका' नामक पुस्तक में उल्लेखित है कि मंदिर की महिमा अपरंपार है। हर्षवर्धन के काल में इस मंदिर का जीर्णोद्घार किया गया था। उज्जैन शाक्य मत का गढ़ रहा है। अतः कालिका का स्थान इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना गया है। शक्ति संगम तंत्र में कालिका की महिमा बताई गई है।

किंवदंती है कि प्राचीनकाल में बलि दी जाती थी, किंतु बाद में नवरात्रि के अवसर पर पशु वध की परंपरा स्थापित हो गई। मंदिर प्रातः स्मरणीय है। गर्भगृह में देवी की विशाल मूर्ति है, देवी मूर्ति के सामने सिंह विराजमान है। मुख्य मूर्ति के पास चामुंडादेवी एवं गिरीश रुद्र की मूर्तियाँ हैं। 'अवंती संघ्यके देशे कालिका तत्र तिष्ठति'।

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