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मणिनागेश्वर शिवलिंग

मणिनागेश्वर ने की थी शिव उपासना

हमें फॉलो करें मणिनागेश्वर शिवलिंग
- कृष्ण कुमार गोस्वामी
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नाग की प्रजातियां तो विश्व में अनेक जगह पाई जाती हैं, परंतु सबसे अहम बात यह है कि जो हम सुनते और पढ़ते हैं कि मणिधारक नाग होते हैं, तो वह नर्मदा के त्रिपुरतीर्थ उत्तर व दक्षिण तट पर ही रहते हैं। इसका उल्लेख भी स्कंद पुराण के रेवाखंड में किया गया है।

प्राचीन शिवलिंगों के रहस्य में मणिनागेश्वर शिवलिंग की बहुत महिमा है। जो जबलपुर के नर्मदा के उत्तर व दक्षिण तट पर स्थित है। यह शिवलिंग मणिधारक नाग ने शिव उपासना के दौरान स्थापित किया था।

नागराज की कथा के अनुसार महर्षि कश्यप एक सिद्ध महात्मा थे। उनकी दो पत्नियां थीं। एक विनता दूसरी कद्रू। विनता के गर्भ से गरुड़ और कद्रू के गर्भ से मणिनाग व अन्य सर्प पैदा हुए। एक दिन विनता और कद्रू ने भगवान सूर्यनारायण के रथ के घोड़ों को देखा, तो दोनों में शर्त लगी।

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विनता कहने लगी कि घोड़ा सफेद है कद्रू बोली कि घोड़ा काला है। जब कद्रू ने अपने पुत्र सर्पों से बोला कि कुछ उपाय करो कि घोड़े कुछ देर के लिए काले दिखें। सर्पों ने कहा कि हम गरुड़ की माता से झूठ नहीं बोलेंगे।

इस बात पर कद्रू ने सर्पों को श्राप दे दिया कि जो मेरी आज्ञा का पालन नहीं करेगा वो मेरे क्रोध की अग्नि से जलकर भस्म हो जाएगा। मां की आज्ञा की अह्वेलना के डर से कुछ सर्प तो घोड़े से लिपट गए और कुछ इधर-उधर भाग गए।

उसी समय मणिनाग ने मां की क्रोध अग्नि से बचने के लिए उत्तर तट पर शिव उपासना की और जगत के कल्याण के लिए शिव आज्ञा से शिवलिंग स्थापित किया। तभी से इस शिवलिंग का नाम मणिनागेश्वर प्रचलित हुआ।

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मणिनागेश्वर में पंचमुखी नाग की प्रतिमा विराजामान है। यह प्रतिमा कल्चुरिकालीन है। माना जाता है कि इस लिंग के पूजन से कालसर्प योग से मुक्ति मिलती है।

मणिनागेश्वर में शुक्ल पक्ष की पंचमी, चतुर्दशी, अष्टमी तिथि में जो व्यक्ति यहां पर शिव उपासना करता है उसे कालसर्प दोष से मुक्ति मिल जाती है। इसका उल्लेख नंदी गीता व स्कंद पुराण के नर्मदा खंड में आया है।

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