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पहचान बना पचराही

हमें फॉलो करें पहचान बना पचराही
- रायपुर से भुनेश्वर कश्यप

छत्तीसग़ढ़ राज्य बनने के पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि कबीरधाम जिले का एक छोटा-सा इलाका पचराही पुरातात्विक विशेषताओं को लेकर राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर आएगा। कल्चुरी राजाओं के इतिहास का गवाह यह इलाका देश के खास उत्खनन केंद्रों में गिना जाने लगा है।

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छत्तीसगढ़ में पुरातत्व को लेकर अब तक जितना काम हुआ है, उसमें पचराही अव्वल है। यहां का शिल्प सैलानियों के आकर्षण का केंद्र है।

फरवरी, 2008 में पुरातत्व विभाग के उपसचिव एस.एस. यादव के निर्देशन में यहां उत्खनन शुरू हुआ। तब से लेकर अब तक यहां 50 से अधिक स्वर्ण, ताम्र और रजत की मुद्राएँ मिल चुकी हैं, जो उस काल के राजाओं की सोच, उनकी व्यापारिक गतिविधियों को बयाँ करती हैं।

खुदाई के दौरान निकले अवशेषों का हवाला देते हुए एस.एस. यादव बताते हैं, 'अब तक मिले अवशेषों के आधार पर सोमवंशी राजाओं ने पचराही में सबसे पहले शासन किया। उनका कार्यकाल 7-8 वीं शताब्दी था। इसके बाद कल्चुरी राजाओं ने 10-11 वीं शताब्दी और फणिनागवंशियों ने 12-13 वीं शताब्दी तक यहां राज किया।' यहां से निकले अवशेष के मुताबिक कुछ मुस्लिम शासकों का प्रभाव भी इस इलाके में था।

अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि फणिनागवंशी राजा सुरक्षा को लेकर बेहद सचेत थे। उनका दरबार चार मोटी सुरक्षा दीवारों के बीच लगता था। इसमें बाहरी दीवार पत्थर की तथा अंदर की तीन दीवारें ईंटों से निर्मित थीं। पचराही पुरातत्वविदों के मुताबिक इस वंश के राजाओं को उत्तर में परमार वंश और पूर्व में गंग वंश से ज्यादा खतरा था। यहाँ जो दीवारें मिली हैं, उनकी ऊँचाई 12 तथा चौड़ाई 8 फुट है। चारों दीवारों के बीच करीब दो फुट का फासला है जहां चौबीसों घंटे चौकीदारों का पहरा होता था। चारों दीवारों को पार करने के बाद बीच में राजा का दरबार लगता था।

इस वंश के राजा चामुंडा देवी की पूजा करते थे। खुदाई में चार सेंटीमीटर की निकली इस देवी की मूर्ति इस बात का प्रमाण है। बताते हैं कि फणिनागवंशी राजा यात्रा के दौरान देवी की मूर्ति अपने साथ ले जाया करते थे, ताकि किसी प्रकार की विपदा न आए। मूर्ति में गजब की कलाकारी दर्शाई गई है। इसमें देवी के १० हाथ हैं। सभी हाथों में अस्त्र-शस्त्र हैं। कलाकार ने बड़ी ही सूक्ष्मता से इस मूर्ति‍ पर काम कि‍या है।

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हड्डी के तीर से होता था शिकार

राज्य के पुरातात्विक महत्व के स्थल में सिरपुर और धमतरी स्थित लिलर का भी विशेष स्थान है। लिलर में मिले अवशेष के मुताबिक यहाँ महापाषाण काल (एक हजार ईसा पूर्व) में मनुष्य की हड्डियों से बने तीर से शिकार होता था। पुरातत्ववेत्ताओं की मानें तो इस तीर से छोटे पशुओं और पक्षियों का शिकार किया जाता था।

लिलर धमतरी से 15 किलोमीटर दूर झरझरा नाला के तट पर स्थित है। यह तीसरा ऐसा स्थान है, जहाँ महापाषाण काल को जानने के लिए खुदाई चल रही है। इससे पहले धनौरा और दुर्ग के कटकाभार में खुदाई हो चुकी है। पुरातत्व विभाग के उपसंचालक एसएस यादव ने बताया कि महापाषाण काल के मानव लोहे से परिचित हो गया था लेकिन इसका इस्तेमाल सिर्फ बड़े जानवरों को मारने के लिए किया जाता था। पक्षियों का शिकार हड्डी से होता था।

लिलर में एक स्तंभनुमा पत्थर भी मिला है। पुरातत्ववेत्ता अतुल प्रधान के मुताबिक यह पत्थर मृतकों की याद में गाड़ा जाता था। इसके नीचे मृतक का रोजमर्रा का सामान भी दफनाया जाता था। यहाँ तक कि कुत्ता व मृतक के घोड़े को भी दफन कर दिया जाता था। श्री प्रधान ने बताया कि खुदाई के दौरान पत्थर के आसपास बर्तन-भांड भी मिले हैं। लिलर में एक किंवदंती है कि जिसकी याद में ये पत्थर गाड़े गए हैं, वे शैतान रहे होंगे।

संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के आयुक्त राजीव श्रीवास्तव का कहना है कि पचराही, सिरपुर और लिलर में उत्खनन के दौरान निकले अवशेषों को हमने सहेजने का प्रयास शुरू कर दिया है। इनके रखरखाव के लिए प्रारंभिक स्तर पर अस्थायी म्यूजियम बनाया गया है। यह विभाग और प्रदेश के लिए गौरव की बात है कि हम पुरातत्व के मामले में देश में नाम कमा रहे हैं। आने वाले दिनों में प्रदेश के और विभिन्न स्थलों का सर्वेक्षण किया जाएगा।

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