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मुनफरीद अशआर : अकबर इलाहाबादी

हमें फॉलो करें मुनफरीद अशआर : अकबर इलाहाबादी
, शनिवार, 14 जून 2008 (14:28 IST)
1. खिलाफ़-ए-शरअ बभी शेख थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं

2. रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जाके थाने में
कि अकबर नाम लेता है खुदा का इस ज़माने में

3. मज़हब ने पुकारा ऎ अकबर अल्लाह नहीं तो कुछ भी नहीं
यारों ने कहा ये क़ौल ग़लत, तनख्वाह नहीं तो कुछ भी नहीं

4. हम एसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

5. हैं अमल अच्छे मगर दरवाज़ा-ए-जन्नत है बन्द
कर चुके हैं पास लेकिन नोकरी मिलती नहीं

6. शेखजी घर से न निकले और मुझसे कह दिया
आप बी.ए.पास हैं और बन्दा बीबी पास है

7. जान शायद फ़रिशते छोड़ भी दें
डॉक्टर फ़ीस को न छोड़ेंगे

8. ब्चश्म-ए-ग़ौर देखो बुबुल-ओ-परवाने की हालत
वो इसपीचें दिया करती है और ये जान देता है

9. वाइज़ का दिल भी सोज़-ए-मोहब्बत से गर्म है
चुप रहने पे न जाओ, ये दुनिया की शर्म है

10. तहज़ीब-ए-मग़रबी में है बोसा तलक मुआफ़
इससे अगर बढ़े तो शरारत की बात है

11. बूट डासन ने बनाया, मैंने इक मज़मूँ लिखा
मुल्क में मज़मूँ न फैला, और जूता चल गया

12. पूछा कि शग़्ल क्या है, कहने लगे गुरूजी
बस राम राम जपना, चेलों का माल अपना

13. हुए इस क़दर मोहज़्ज़िब कभी घर का मुँह न देखा
कटी उम्र होटलों में, मरे हस्पताल जाकर

14. बाहम शब-ए-विसाल ग़लत फ़हमियाँ हुईं
मुझको परी का शुबह हुआ, उनको भूत का

15. बैठा रहा मैं सुबहा से उस अर पे शाम तक
अफ़सोस है हुआ न मोयस्सर सलाम तक

16. पकालें पीस कर दो रोटियाँ, थोड़े से जौ लाना
हमारा क्या है ऎ भाई, न मिस्टर हैं न मौलाना

17. ज़माना कह रहा है सब से फिर जा
न मस्जिद जा, न मन्दिर जा, न गिरजा

18. फ़र्क़ क्या वाइज़-ओ-आशिक़ में बताऊँ तुमको
उस की हुज्जत में कटी, इस की मोहब्बत में कटी

19. गोलियोँ के ज़ोर से करते हैं वो दुनिया को हज़्म
इस से बहतर इस ग़िज़ा के वास्ते चूरन नहीं

20. गो वो खाते पुडिंग और केक हैं
फिर भी सीधे हैं, निहायत नेक हैं
ग़ज़ल ---- अकबर इलाहाबादी
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दो गे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ हो कर

हक़ीक़त में मैंक बुल्बुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ हो कर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

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