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ग़ज़लें : ग़ा‍लिब

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1.
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
जोश ए क़दह से बज़्म ए चिरागाँ किए हुए

करता हूँ जमअ फिर जिगरे लख्त लख्त को
अरसा हुआ है दावत ए मिज़गाँ किए हुए

फिर वज़ ए एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक गरीबाँ किए हुए

फिर गर्म नाला हाय शररबार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर ए चिरागाँ किए हुए

फिर पुरशिशे जराहते दिल को चला है इश्क़
सामाने सद हज़ार नमकदाँ किए हुए

फिर भर रहा हूँ ख़ामा ए मिज़गाँ बख़ून ए दिल
साज़े चमन तराज़िए दामाँ किए हुए

बाहम दिगर हुए हैं दिल ओ दीदा फिर रक़ीब
नज़्ज़ारा ओ ख़्याल का सामाँ किए हुए

दिल फिर तवाफ़ ए कू ए मलामत को जाए है
पिनदार का सनमकदा वीराँ किए हुए

2.
बस के दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मोयस्सर नहीं इनसाँ होना

गिरया चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर ओ दीवार से टपके है बियाबाँ होना

वाए, दीवानगी ए शौक़ के हर दम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना

जलवा अज़ बस के तक़ाज़ा ए निगह करता है
जोहर ए आईना भी चाहे है मिज़गाँ होना

हाय, उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गरीबाँ होना

3.
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

दाम हर मौज है हल्क़ा ए सद काम नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गोहर होने तक

आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून ए जिगर होने तक

हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होने तक

परतवे ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

यक नज़र बेश नहीं फ़ुरसत ए हस्ती ग़ाफ़िल
गरमिए बज़्म है इक रक़्से शरर होने तक

ग़म ए हस्ती का असद किस से हो ज़ुज़ मर्ग इलाज
शमअ हर रंग में जलती है सहर होने तक

4.
नुक्ताचीं है ग़मे दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूँ उसको मगर ए जज़्बा ए दिल
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने

खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए
काश यूँ भी हो ‍कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिरता है लिए यूँ तेरे खत को के अगर
कोई पूछे के ये क्या है तो छुपाए न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन के ये जलवागरी किसकी है
परदा छोड़ा है वो उसने के उठाए न बने

मौत की राह न देखूँ के बिन आए न रहे
तुमको चाहूँ के न आओ तो बुलाए न बने

बोझ वो सर से गिरा है के उठाए न उठे
काम वो आन पड़ा है के बनाए न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब
के लगाए न लगे और बुझाए न बने

5.
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

6.
दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखि़र इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है

मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
काश पूछो के मुद्दुआ क्या है

जब के तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ए ख़ुदा क्या है

ये परी चेहरा लोग कैसे हैं
ग़मज़ा ओ इशवा ओ अदा क्या है

शिकन ए ज़ुल्फ़ ए अम्बरी क्यूँ है
निगह ए चश्म ए सुरमा सा क्या है

सबज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हाँ, भला कर तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता वफ़ा क्या है

मैंने माना के कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

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