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मीर की ग़ज़लें

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, शुक्रवार, 22 अगस्त 2008 (17:00 IST)
1. राहे-दूरे-इश्क़ से रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या

Aziz AnsariWD
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मेख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

क़ाफ़ले में सुबहा के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

ग़ैरत-ए-युसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
"मीर" इस को रायगाँ खोता है क्या

2. मुँह तका ही करे है जिस-तिस का
हैरती है ये आइना किसका

शाम से कुछ बुझा सा रहता है
दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस का

फ़ैज़ ए अब्र चश्म-ए-तर से उठा
आज दामन वसी है इसका

ताब किसको जो हाल-ए-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मजलिस का

3. मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर
मस्जिद में है क्या शेख़ प्याला न निवाला

गुज़रे है लहू वाँ सर-ए-हर-ख़ार से अब तक
जिस दश्त में फूटा है मेरे पांव का छाला

देखे है मुझे दीदा-ए-पुरचश्म से वो "मीर"
मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला

4. मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर
अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर

कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़
आया है अब मिज़ाज तेरा इम्तिहान पर

मोहताज को ख़ुदा न निकाले कि जू हिलाल
तश्हीर कौन शहर में हो पारा-नान पर

शोख़ी तो देखो आप कहा आओ बैठो "मीर"
पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़ुबान पर

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