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बनी रहे 'उनकी' खुली-खिलखिलाती हंसी

संध्या राय चौधरी

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कमरे में नंदिता और उसकी तीन सहेलियां किसी बात पर जोर-जोर से हंसी, बाहर के कमरे में बैठी ताईजी को उनका हंसना नागवार लगा। वे बोलीं- 'क्या बेवकूफों की तरह हंस रही हो, ये सयानी लड़कियों की तो पहचान नहीं! मैं जब कॉलेज में पढ़ती थी तब लड़कियों के इस तरह हंसने पर ऐसी जोर की डांट पड़ती थी कि हंसना भूल जाती थीं।'

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बड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने को शिक्षित कहलाने वाली लड़कियों के हंसने पर इतना दकियानूसीपन दिखाना! मेरा इतना कहना क्या हुआ कि ताई ने गरम होकर कहा- 'अरे वाह! क्या तुम नहीं जानती हमारे संस्कारों में लड़कियों को कुछ सीमाओं को मानना जरूरी है। खी--खी- करके हँसना बेशर्मीपन है।' ताई से तो खैर तर्क करना फिजूल था लेकिन मन में पूरे समय यह बात कौंधती रही कि उन्मुक्त हँसी हँसने का अधिकार लड़कियों को क्यों नहीं है।घर में ही लगती पाबंदी

हमने पूरी दुनिया को ज्ञान की रोशनी दी है। तो पहला ज्ञान तो हम अपनी बेटियों को ही देते हैं- ये क्या लड़कों की तरह मुंह फाड़कर हंस रही हो? लड़कियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि धीरे-धीरे हंसो। भीतर घर में जाकर हंसो। इतना जोर से मत हंसो कि उसकी आवाज सुनकर लोग पलटकर तुम्हें देखने लग जाएं।

लेकिन दूसरी तरफ पुरुष कहीं भी ठहाका लगा सकते हैं। पहले घर की बैठक ही उनकी हंसी-मजाक के लिए हुआ करती थी। वे हंसें तो उसकी आवाज भीतर तक जा सकती थी। लेकिन भीतर से जहां घर की औरतें हों वहां से हंसी की आवाज बैठक तक बिलकुल नहीं पहुंचनी चाहिए। हां, पारंपरिक रूप से ऐसी पाबंदी स्त्रियों के रोने पर नहीं रही है। वे सिसक-सिसक कर रोएं या जोर-जोर से बुक्का फाड़कर। उलटे किसी के यहां गमी हो जाए और अंदर से रोने की आवाज नहीं आए तो बिरादरी में बड़ी शिकायत होती थी।

अपने घर जाने पर भी रोना

रुदाली की परंपरा के बारे में तो आपने सुना ही होगा। शादी के बाद मायके से विदा होते समय भी लड़की को ही रोना होता है। वह खुशी-खुशी अपना नया घर बसाने नहीं जा सकती। इस अवसर पर दूल्हा नहीं रोता। वह तो मन ही मन मुस्कराता रहता है। जिस दूल्हे ने मन में घर जमाई बनने का सपना संजो रखा हो, वह भी विदाई के समय नहीं रोता। हंसना और रोना मनुष्य को प्रकृति की देन हैं। लेकिन हमारी समाज में औरतों को इसके लिए भी आजादी नहीं दी गई है। हंसना-रोना उसका अपना है, लेकिन उस पर पहरा मर्दों का है और उसके लिए सीमाएं तय हैं।

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हंसना भी गुनाह
कुछ दशकों पहले तक कई परिवारों में पत्नी का अपने पति के साथ सामान्य बातचीत में हंसना भी असभ्यता की निशानी माना जाता था। बहुओं से यह अपेक्षा की जाती थी कि उनकी हंसी की आवाज कमरे के बाहर सुनाई नहीं देनी चाहिए। मर्द का उच्छृंखल होना उसकी मर्दानगी समझी जाती है,लेकिन औरत का अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना अशिष्टता, असभ्यता।

अब जब समय बदल रहा है, तो समाज को भी अपने दोहरे मापदंडों की खोल से बाहर आना होगा। लड़कों और लड़कियों दोनों को प्रथमतः मानव मान उन्हें समान नजर से देखना होगा। हंसना, रोना या अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी मसला है, अतः हर व्यक्ति को यह तय करने का हक है।(जब तक कि वह दूसरे व्यक्ति को किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाए)। समाज में अक्सर लड़कियों के व्यवहार को अलग चश्मे से देखा जाता है। किन्तु अब दकियानूसी, रूढ़िवादी सोच को छोड़ना होगा। नहीं तो लड़कियों के बगावती तेवर समाज के लिए नई समस्याओं को जन्म देने लगेंगे।

यदि हर तर्क-वितर्क को ताक पर रख कर सोचा जाए तो क्या लड़कियों के खिलखिला कर हंसने पर ऐसा नहीं लगता कि मानो प्रकृति अपनी खुशी का इजहार कर रही हो, पेड़ों से खूबसूरत फूल खनकती आवाज के साथ झर रहे हों।

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