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दौड़ने का मजा

दौड़ने को बनाओ ध्यान

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ओशो

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शायद पने सोचा भी न हो कि दौड़ना भी एक ध्यान हो सकता है, लेकिन दौड़ने वाले को कई बार ध्यान के अपूर्व अनुभव हुए हैं और वे चकित हुए, क्योंकि इसकी तो वे खोज भी नहीं कर रहे थे। कौन सोचता है कि कोई दौड़ने वाला परमात्मा का अनुभव कर लेगा? परंतु ऐसा हुआ है। और अब तो दौड़ना एक नए प्रकार का ध्यान बनता जा रहा है। जब दौड़ रहे हों तो ऐसा हो सकता है।

यदि प कभी एक दौड़ाक रहे हों, यदि आपने सुबह-सुबह दौड़ने का आनंद लिया हो जब हवा ताजी हो और सारा विश्‍व नींद से लौटता हो, जागता हो- प दौड़ रहे हों और आपका शरीर सुंदर रूप से गति कर रहा हो; ताजी हवा रात के अंधकार से गुजरकर जन्मा नया संसार- जैसे हर चीज गीत गाती हो- प बहुत जीवंत अनुभव करते हो...एक क्षण आता है जब दौड़ने वाला विलीन हो जाता है और बस दौड़ना ही बचता है। शरीर, मन और आत्मा एक साथ कार्य करने लगते हैं; अचानक एक आंतरिक आनंदोन्माद का आविर्भाव होता है।

दौड़ाक कई बार संयोग से चौथे के, तुरीय के अनुभव से गुजर जाते हैं, यद्यपि वे उसे चूक जाएँगे- वे सोचेंगे कि शायद दौड़ने के कारण ही उन्होंने इस क्षण का आनंद लिया- कि प्यारा दिन था, शरीर स्वस्थ था और संसार सुंदर, और यह अनुभव एक भावदशा मात्र थी। वे उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते- परंतु वे ध्यान दें, तो मेरी अपनी समझ है कि एक दौड़ाक किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा ‍अधिक सरलता से ध्यान के करीब आ सकता है।

'जॉगिंग' (लयबद्ध धीरे-धीरे दौड़ना) अपूर्व रूप से सहयोगी हो सकती है, तैरना बहुत सहयोगी हो सकता है। इन सब चीजों को ध्यान में रूपांतरित कर लेना है।

ध्यान की पुरानी धारणा को छोड़ दें कि किसी वृक्ष के नीचे योग-मुद्रा में बैठना ही ध्यान है। वह तो बहुत से उपायों में से एक उपाय है और हो सकता है वह कुछ लोगों के लिए उपयुक्त हो, लेकिन सबके लिए उपयुक्त नहीं है। एक छोटे बच्चे के लिए यह ध्यान नहीं, उत्पीड़न है। एक युवा व्यक्ति जो जीवंत और स्पंदित है, उसके लिए यह दमन होगा ध्यान नहीं।

सुबह सड़क पर दौड़ना शुरू करें। आधा मील से शुरू करें और फिर एक मील करें और अंतत: कम से कम तीन मील तक आ जाएँ। दौड़ते समय पूरे शरीर का उपयोग करें; ऐसे न दौड़ें जैसे कसे कपड़े पहने हुए हों। छोटे बच्चे की तरह दौड़ें, पूरे शरीर का- हाथों और पैरों का- उपयोग करें और दौड़ें। पेट से गहरी श्वास लें। फिर किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाएँ, विश्राम करें, पसीना बहने दें और शीतल हवा लगने दें; शांत अनुभव करें। यह बहुत गहन रूप से सहयोगी होगा।

कभी-कभी बिना जूते-चप्पल पहने नंगे पाँव जमीन पर ही खड़े हो जाएँ और शीतलता को, कोमलता को, उष्मा को महसूस करें। उस क्षण में पृथ्वी जो कुछ भी देने को तैयार है, उसे अनुभव करें और अपने में बहने दें। पृथ्‍वी के साथ जुड़ जाएँ।

यदि प पृथ्वी से जुड़ गए, तो जीवन से जुड़ ग। यदि प पृथ्‍वी से जुड़ गए, तो अपने शरीर से जुड़ गए। यदि प पृथ्‍वी से जुड़ गए, तो बहुत संवेदनशील और केंद्रस्थ हो जाएँगे। और यही तो चाहिए।

दौड़ने में कभी भी विशेषज्ञ न बनें; नौसिखिए ही बने रहें, ताकि सजगता रखी जा सके। जब कभी आपको लगे कि दौड़ना यंत्रवत हो गया है, तो उसे छोड़ दें; फिर तैरकर देखो। यदि वह भी यंत्रवत हो जाए, तो नृत्य को लो। यह बात याद रखने की है कि कृत्य मात्र एक परिस्थिति है कि जागरण पैदा हो सके। जब तक वह जागरण निर्मित करे तब तक ठीक है। जब वह जागरण पैदा करना बंद कर दे तो किसी काम का न रहा; किसी और कृत्य को पकड़ो जहाँ आपको फिर से सजग होना पड़े। किसी भी कृत्य को यंत्रवत मत होने दो।

ओशो- ध्यानयोग प्रथम और अंतिम मुक्ति
फरवरी- 1998 ओशो टाइम्स से साभार

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