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एक हीरो जो गुमनाम रह गया

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- सुशील झा (मुंबई से)

Aziz Ansari
BBC
मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर चरमपंथियों के आने की घोषणा कर के लोगों की जान बचाने वाले विष्णु झेंडे का नाम तो सब जानते हैं, लेकिन बिल्कुल यही काम करने वाले बबलू कुमार दीपक को कोई नहीं जानता।

बबलू भी रेलवे स्टेशन पर अनाउंसर यानी उदघोषक का काम करते हैं और उन्होंने भी चरमपंथियों से कई लोगों को बचाया है, लेकिन उनके काम की किसी ने सराहना तक नहीं की।

असल में छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर दो बूथ हैं जहाँ से ट्रेनों के आने-जाने की घोषणा होती है। मुख्य बूथ पर 26 नवंबर 2008 के दिन बबलू की ड्यूटी थी।

वो कहते हैं, ‘आप ड्यूटी चार्ट देख लीजिए, मैं तीन से 11 की शिफ्ट पर था। रात को 9 बजकर 50 मिनट पर मैंने धमाके की आवाज सुनी। अपने बूथ से बाहर देखा तो हमलावर थे और उनके हाथों में बंदूकें थीं। मैंने घोषणा की कि लोग मुख्य लाइन की प्लेटफॉर्मों पर न आएँ। उसके बाद हमलावरों ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दी।’

बबलू कुछ देर तक बूथ में रहे और अधिकारियों को जानकारी देने के बाद उन्होंने बूथ की लाइटें बंद कर दीं।

वो कहते हैं, ‘उस दिन मैं रात के दो बजे तक काम करता रहा। लोगों को अस्पताल ले जाने में भी मदद की, लेकिन मेरे काम को किसी ने नहीं देखा।’

उधर विष्णु झेंडे लोकल प्लेटफॉर्म के घोषणा बूथ पर थे और जब चरमपंथी गोलियाँ बरसाकर लोकल प्लेटफॉर्म की ओर भागे तो झेंडे ने घोषणा की थी।

बबलू को झेंडे से कोई शिकायत नहीं है। वो कहते हैं, ‘झेंडे ने अपना काम किया। मैंने भी वही काम किया, लेकिन मुझे 500 रुपए दिए गए इनाम में और झेंडे को 15 लाख, ये कहाँ का न्याय है?’

बबलू बताते हैं कि अधिकारियों ने उनसे कहा था कि उनका नाम भी इनाम के लिए भेजा गया है, लेकिन कई महीनों तक जवाब नहीं आने पर बबलू ने अधिकारियों को पत्र लिखा।

बार-बार पत्र लिखने के बाद अब कहीं जाकर बबलू को 500 रुपए और एक सर्टिफिकेट दिया गया है। बबलू ने गुस्से में इस नोट को सर्टिफिकेट के साथ चिपका कर रख दिया है।

वो बस यही कहते हैं, ‘बात पैसे की नहीं है। बात है ईमानदारी से काम करने की' नसीब में जो था वही हुआ। मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने लोगों की जान बचाई। दुख इस बात का है कि अधिकारियों ने मेरा काम देखा ही नहीं।’

और भी हैं नाराज लोग : उधर 26 नवंबर को झेंडे की मदद करने वाले उनके साथी भी नाराज हैं। घोषणा के दौरान झेंडे की दो लोगों ने मदद की थी। शेखर पेश्विन और गिरिजा शंकर तिवारी।

शेखर बताते हैं, ‘हम लोगों का काम ही होता है अनाउंसर की मदद करना। जब हमलावर आए तो हम बार-बार खिड़की से बाहर झाँकते थे और झेंडे को बताते थे कि क्या स्थिति है। फिर वो घोषणा करता था, लेकिन लोगों ने उसकी आवाज सुनी और उसको हीरो बना दिया।’

शेखर का गुस्सा जायज भी दिखता है। वो कहते हैं, ‘वो टीम वर्क था। अकेले झेंडे का काम नहीं था फिर सिर्फ उसी को इनाम क्यों। हमारे काम की सराहना तो होनी चाहिए।’

पता नहीं इन गुमनाम रह गए नायकों की बातें कोई सुन रहा है या नहीं।

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