Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

क्या मंगल ग्रह पर कभी ज़िंदगी थी?

हमें फॉलो करें क्या मंगल ग्रह पर कभी ज़िंदगी थी?
, शनिवार, 13 फ़रवरी 2016 (12:52 IST)
- जैसमीन फॉक्स-स्केली
 
मंगल ग्रह, हमारी धरती का सबसे क़रीबी पड़ोसी है। अंतरिक्ष में दूसरी दुनिया तलाशते इंसान को इस लाल ग्रह से इस मामले में काफी उम्मीदें हैं। तमाम देशों की अंतरिक्ष एजेंसियां लाल ग्रह में जिंदगी तलाश रही हैं।
मगर, दिक्कत हैं वहां के हालात। जो जिंदगी के पनपने के लिहाज से काफी सख़्त हैं। ये बंजर है। बेहद ठंडा है। वहां औसत तापमान -60 डिग्री सेल्सियस रहता है। और, जाड़ों में मंगल के ध्रुवों का तापमान तो- 126 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। मंगल का वायुमंडल बेहद कमज़ोर है। इतना कमज़ोर कि अंतरिक्ष से रेडियोएक्टिव किरणों की मंगल पर जैसे बमबारी सी होती रहती है। फिर मंगल पर ऑक्सीजन भी बेहद कम है। इतनी कम कि मंगल की फ़िज़ा में केवल पांच फ़ीसदी ऑक्सीजन है। बाक़ी है कार्बन डाई ऑक्साइड। ऐसे में ज़िंदगी के पनपने की गुंजाइश वहां बेहद कम है।
 
फिर भी, मंगल पर भेजे गए हालिया मिशन से वहां ज़िंदगी की उम्मीद जगी है। वैज्ञानिकों को लगता है कि धरती के कुछ बैक्टीरिया मंगल ग्रह पर ज़िंदा रह सकते हैं। ऐसे कुछ बैक्टीरिया की लिस्ट बनाने की कोशिश हो रही है, जो मंगल के बेहद ठंडे माहौल और जानलेवा विकिरण में भी बच जाएं।
 
इसके लिए कुछ प्रयोगशालाओं में मंगल ग्रह जैसा माहौल तैयार किया गया है। जहां ऐसे बैक्टीरिया रखे जा रहे हैं, जो सख्तजान हैं और बेहद बुरे वातावरण में भी जिंदा रहते हैं। इन बैक्टीरियों को बेहद सर्द तापमान में रखा जाता है। इन पर रैडिएशन, यानी रेडियोएक्टिव किरणों की बौछार की जाती है। ताकि, ये परखा जा सके कि ये मंगल के वातावरण में बच पाएंगे या नहीं। ऐसा एक प्रयोग इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर भी चल रहा है।
 
इन प्रयोगों की बदौलत, वैज्ञानिकों ने ऐसे जीवों की एक लिस्ट तैयार की है, जो मंगल ग्रह पर ज़िंदा रह सकते हैं। इस लिस्ट में पहला नाम है डीनोकोकस रेडियोड्यूरन्स नाम के बैक्टीरिया का। इसे धरती पर पाया जाने वाला सबसे सख़्तजान जीवाणु कहा जाता है। जितने रैडिएशन में एक इंसान की मौत हो जाए, उससे हज़ार गुना विकिरण ये बैक्टीरिया झेल सकता है और ये भयानक ठंड भी झेल सकता है।
 
वैज्ञानिकों ने लैब में इस बैक्टीरिया को -79 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रखा। और, ये उसमें भी बच निकला। मंगल ग्रह पर औसतन इतना ही तापमान रहता है। फिर वैज्ञानिकों ने इस पर भयानक रेडियोएक्टिव गामा किरणों की बौछार की। ताकि ये देख सकें कि ये मंगल ग्रह की ज़मीन के अंदर छुपने के बाद भी होने वाले रैडिएशन के हमले को झेल सकता है या नहीं। और ये बैक्टीरिया इतना मज़बूत निकला कि हर मुश्किल झेल गया।
 
वैज्ञानिक मानते हैं कि मंगल के बेहद सख़्त वातावरण में भी इसके जीने की काफ़ी उम्मीदें हैं। मंगल ग्रह के माहौल में जीने की क्षमता रखने वाला धरती का दूसरा जीव भी एक बैक्टीरिया ही है। ये जीवाणुओं के हैलोबैक्टीरियाकेसी परिवार से ताल्लुक रखता है। ये बेहद सूक्ष्म बैक्टीरिया, धरती पर पैदा होने वाले शुरुआती जीव आर्किया के करीबी हैं।
 
एक अंदाजे के मुताबिक, ये धरती पर पहले पहल करीब साढ़े तीन से चार सौ करोड़ साल पहले पैदा हुए होंगे। जब धरती का वातावरण भी आज के मंगल ग्रह जैसा ही था। हैलोबैक्टीरियाकेसी, धरती के बेहद खारे इलाकों में पाए जाते हैं। जैसे डेड सी। अब जैसा माहौल मृत सागर का है, उसके हिसाब से वैज्ञानिकों को लगता है कि ये मंगल ग्रह पर भी जी ही लेंगे।
webdunia

 
क्योंकि मंगल पर भी हाल में खारे पानी के इलाकों का पता चला है। हैलोबैक्टीरियाकेसी परिवार के दो सदस्य, मंगल ग्रह पर जी सकने वाले जीवों की लिस्ट में हैं। इनमें से पहला है हैलोकोकस डोम्ब्रोस्की नाम का जीवाणु। जबकि दूसरा है हैलोबैक्टेरियम स्पे एनआरसी-1।
 
एक प्रयोग से पता चला है कि ये दोनों ही बैक्टीरिया, धरती पर हवा के दबाव से छह गुना ज्यादा दबाव झेल सकते हैं। ये कार्बन डाई ऑक्साइड की बड़ी मात्रा भी झेल सकते हैं। और -60 डिग्री सेल्सियस का तापमान भी करीब छह घंटे तक बर्दाश्त कर सकते हैं।
 
जर्मनी एरोस्पेस सेंटर के वैज्ञानिक स्टीफ़ेन ल्यूको ने तीन और ऐसे बैक्टीरिया के साथ प्रयोग किए हैं। ताकि ये पता लगा सकें कि क्या ये भी मंगल ग्रह पर जिंदा रह सकेंगे? इसके लिए हैलोबैक्टीरियम सैलिनेरम एनआरसी-1 और हैलोकोकस मोरह्यू नाम के दो बैक्टीरिया पर अल्ट्रावायलेट किरणों की बौछार की गई।
 
एक तीसरे बैक्टीरिया हैलोकोकस हैमेलिनेन्सिस के साथ भी यही प्रयोग हुआ। मगर, रेडियोएक्टिव बौछार सहने में ये बैक्टीरिया अपने दो बाकी परिजनों से कमज़ोर साबित हुआ। धरती के खारे इलाकों में रहने वाले ये जीवाणु मंगल पर जिंदा रह सकेंगे, ये भरोसा करने की एक और वजह भी है। कहा जाता है कि आर्किया जीवाणु परिवार के ये सदस्य, लाखों साल पहले, धरती पर ऐसे ही माहौल में रहे थे।
 
कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि आज के मंगल ग्रह की तरह कभी धरती पर भी नमक के विशाल टुकड़े समंदर में तैरते थे। और ये बैक्टीरिया उन्हीं के अंदर पनपे। हालांकि धरती पर कभी आज के मंगल जैसा माहौल था, ये बात पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती। जर्मन वैज्ञानिक ल्यूको कहते हैं कि, 'धरती पर ऐसे कई जीव हैं जो सेंधा नमक के विशालकाय टुकड़ों के अंदर लाखों साल तक जिंदा रह सकते हैं।'
 
अब जबकि मंगल पर भी ऐसे ही नमक के विशाल टुकड़े खारी झीलों में तैरते पाए गए हैं। ऐसे में लगता है कि ये नमक वाले बैक्टीरिया, मंगल पर भी जिंदा रह लेंगे।
 
ल्यूको कहते हैं, 'मंगल पर रहने की दूसरी बड़ी चुनौती है रैडिएशन। और इससे लड़ने की सबसे ज्यादा ताकत डीनोकोकस रेडियोड्यूरन्स नाम के बैक्टीरिया में आंकी गई है। पर, दिक्कत ये है कि ये बैक्टीरिया, ज्यादा खारे माहौल में रह नहीं सकता। ऐसे में मंगल या ऐसे किसी और ग्रह पर जिंदा रह सकने की बात करें तो हैलोफिलिक आर्किया जीवाणु को लेकर उम्मीदें ज्यादा हैं।'
 
आर्किया जीवाणु परिवार का एक और सदस्य भी मंगल पर जिंदा रह सकने वालों की लिस्ट में शामिल है। इन बैक्टीरिया को मीथेनोजेन कहा जाता है। क्योंकि, ये ऑक्सीजन की जगह, हाइड्रोजन और कार्बन डाई ऑक्साइड से अपने लिए ताकत बटोरते हैं। इस प्रक्रिया में इनसे मीथेन गैस निकलती है। इसीलिए इन्हें मीथेनोजेन कहा जाता है।
webdunia
मीथेनोजेन, धरती पर कई जगह पाए जाते हैं। अक्सर ये बेहद सख़्त माहौल में पनपते देखे गए हैं। जैसे गर्म झरने, खारे तालाब या फिर तेजाबी झीलें। वैज्ञानिकों ने इन्हें साइबेरिया के बेहद सर्द माहौल में भी मज़े से रहते पाया है। ये दीमकों के भीतर, जानवरों के पेट में और सड़ते हुए जीव जंतुओं में भी पाए जाते हैं।
 
ऐसे में वैज्ञानिकों को लगता है कि मंगल पर जिंदा रहने के लिए मीथेनोजेन परफ़ेक्ट उम्मीदवार हैं। क्योंकि इन्हें जीने के लिए न रौशनी चाहिए, न ऑक्सीजन और न ही जैविक पोषक तत्व। और ये सब चीजे मंगल पर वैसे भी बमुश्किल मिलेंगी। साल 2007 में वैज्ञानिकों ने मीथेनोजेन को लैब में मंगल जैसे माहौल में रखा था। बेहद मुश्किल वातावरण में भी मीथेनोजेन जिंदा रहने में कामयाब रहे थे।
 
कुछ बैक्टीरिया, सूखे माहौल में जिंदा रहने के लिए अपने अंदर नमक और चीनी जमा कर लेते हैं। इससे भी उन्हें विकिरण से लड़ने में मदद मिलती है। चीनी और नमक उनके डीएनए को उस वक़्त टूटने से बचाते हैं जब रेडियोएक्टिव किरणें उन पर हमला करती हैं। ये सब पढ़-सुनकर ये लगता है कि धरती के कुछ बैक्टीरिया, मंगल के सख़्त और सर्द माहौल में पनप सकते हैं, आराम से रह सकते हैं।
 
मगर, स्टीफन ल्यूको और डिर्क वैग्नर जैसे वैज्ञानिकों को भी बहुत विश्वास नहीं है कि हर मुसीबत झेल सकने वाले धरती के ये बैक्टीरिया मंगल पर जीवित रह सकेंगे।
वैज्ञानिक कहते हैं कि मंगल ग्रह और धरती के शुरुआती माहौल में ज्यादा फर्क़ नहीं था।
 
वहां मिले हालिया सबूत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कभी वहां भी झीलें थीं, दरिया बहते थे और समंदर भी था। शायद उस वक्त जिंदगी भी पनपी हो। मगर जैसे जैसे वहां का वातावरण सख़्त होता गया, उनमें बदलाव आता गया। या तो वहां के जीवों का खात्मा हो गया, या वो मंगल की सतह के भीतर छुपकर, खुद को बचा सके हों।
 
जर्मन वैज्ञानिक डिर्क वैग्नर कहते हैं, 'अगर हम मंगल और धरती के शुरुआती दिनों की बात करें तो दोनों में बड़ा मेल पाएंगे। दोनों का तापमान कम था। हवा का दबाव कम था। दोनों ही जगह ऑक्सीजन नहीं थी। उस वक्त अगर धरती पर सिर्फ समंदर थे, तो मंगल पर भी पानी रहने के साफ संकेत मिलते हैं।'
 
वैग्नर आगे कहते हैं, 'जब ऐसे माहौल में धरती पर जिंदगी पनपी, तो मंगल पर भी शायद ऐसा ही हुआ होगा। बाद में जब मंगल का माहौल बदला, तो क्या हुआ, इस बारे में किसी को पता नहीं। हो सकता है कि वे सारे जीव विलुप्त हो गए होंगे या फिर ये भी हो सकता है कि वे सभी मंगलग्रह में नीचे कहीं दबे हों'।

हमारे साथ WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें
Share this Story:

वेबदुनिया पर पढ़ें

समाचार बॉलीवुड ज्योतिष लाइफ स्‍टाइल धर्म-संसार महाभारत के किस्से रामायण की कहानियां रोचक और रोमांचक

Follow Webdunia Hindi