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'असहिष्णुता' पर मोदी की आलोचना कितनी सही?

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, सोमवार, 30 नवंबर 2015 (11:07 IST)
- सौतिक बिस्वास 
 
पिछले कुछ हफ्तों में कलाकारों, लेखकों, शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों ने भारत में कथित रूप से बढ़ रही असहनशीलता पर चिंता जताई है। अवार्ड वापसी का लेखकों से शुरू हुआ आंदोलन वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और फिल्म कलाकारों तक फैल गया। भारत और विदेशों में शैक्षणिक संस्थानों से जुड़े तकरीबन 200 शिक्षाविदों ने बढ़ती 'असहिष्णुता और कट्टरपन' के ख़िलाफ़ एक संयुक्त बयान जारी किया था।
यहाँ तक कि बॉलीवुड के सितारे शाहरुख खान और आमिर खान ने भी इस मुद्दे पर बोला है। विपक्षी राजनेताओं ने संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में असहिष्णुता पर बहस कराने की मांग भी की है।
 
उन्होंने विद्वान और तर्कवादी डॉक्टर एमएम कलबुर्गी और गोविंद पनसारे की हत्याओं के अलावा बीफ खाने के संदेह में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर एक व्यक्ति की हत्या की घटनाओं का हवाला देते हुए कहा है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। कई लोग इस बात से सहमत हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के शासन में भारत अचानक ही असहिष्णु नहीं हुआ है। हमें याद है कि किताबों और फिल्मों पर पहले भी प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं।
 
लेखकों और कलाकारों को देशभर में राजनीतिक दलों और कुछ संगठनों से धमकियां पहले भी मिलती रही हैं। और जैसा कि टिप्पणीकार मुकुल केसवन कहते हैं कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का आजाद ख़्यालों की रक्षा करने का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है।
 
तो क्या भारत बहुमत की राजनीति से चल रही असहिष्णुता का नया रूप देख रहा है? या जैसा कि विश्लेषक टीएन निनन कहते हैं कि कुछ असहिष्णुता इस विषम देश में आधुनिकता से जुड़े सामाजिक मंथन से संबंधित है?
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अमेरिका और फ्रांस में पढ़ा रहे संजय सुब्रमण्यम भारत के प्रमुख इतिहासकारों और जीवनीकारों में से एक हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या भारत प्रधानमंत्री मोदी के राज में असहिष्णु हो गया है?
 
भारत में असहिष्णुता कोई नई चीज नहीं है। तो फिर हम पिछले साल भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद जो कुछ हुआ है, उसे लेकर अचानक बहुत उग्र और चिंतित क्यों है?
 
मैंने भारत को पिछले लगभग एक साल से नहीं देखा है। इसलिए मेरी धारणा दूर से देखने पर आधारित है। फिर भी, ऐसा लगता है कि चिंता इस तथ्य से उभरी है कि भाजपा को संसद में प्रचंड बहुमत मिला है, जिसे उनके पास अपने उस एजेंडे को लागू करने के मौक़े के रूप में देखा जा सकता है जो वो 1998-2004 के दौरान नहीं कर सके थे, जब उनकी पार्टी पहले सत्ता में थी। अगर ये गठबंधन सरकार होती तो लोग बहुत परवाह नहीं करते।
 
इसके अलावा, मौजूदा सरकार लगातार दो तरह की बातें करती है। एक आवाज वो है जो वाजिब, सहिष्णु और आश्वस्त करने वाली है, जबकि दूसरी अधिक आक्रामक और कठोर है।
 
इस सोचे-समझे दोहरेपन में 'अच्छा सैनिक, बुरा सैनिक' की लगातार संशोधित रणनीति अंतर्निहित है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर चिंतित होने वाली बात है कि इस सरकार के लिए पांच साल तक काम करने का ढर्रा क्या यही होगा।
 
क्या आपको लगता है कि भारत वास्तव में अधिक असहिष्णु हो गया है? क्या ये इस वजह से नहीं है कि कांग्रेस और दूसरी ग़ैर भाजपा शासित राज्य सरकारों में इस मुद्दे पर खड़े होने का दम नहीं है?
 
ये 'भारत' का सवाल नहीं है, बल्कि ये राजनीतिक दलों के रवैये से जुड़ा हुआ है। ये सही है कि स्वतंत्र भारत में आजाद ख्‍यालों की डोर हमेशा से नाजुक रही है। इन पर हमला करने वालों में भाजपा इकलौती नहीं है, कुछ ही राजनीतिक दलों ने वास्तव में राजनीतिक उदारवाद को अपनाया है। लेकिन क्या इससे भाजपा को आलोचना से बचने का अधिकार मिल जाता है?
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मुझे दो जेबकतरों द्वारा लूटा जा रहा है, क्या ये किसी तरह की तसल्ली है? अगर वर्तमान राजनीतिक माहौल की आलोचना सिर्फ राजनीतिक कारणों से होती और सिर्फ खुद भी काले कारनामों में शामिल राजनीतिक दलों (जैसे कांग्रेस) द्वारा होती तो इतना बवाल नहीं मचता।
 
लेकिन ये आलोचना समाज के उन विभिन्न वर्गों के लोगों से आई है, जिन्हें असुरक्षा महसूस होती है और जब वे अहिंसक तरीके से प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें बेरहमी से देश छोड़ने और कहीं और जाने को कह दिया जाता है। ये बहुमत की अशिष्ट भाषा है। कई संस्थानों में इसे महसूस किया गया। विश्वविद्यालयों में मेरे दोस्त ऐसा महसूस कर रहे हैं।

तो वो सहनशीलता भाजपा के मौजूदा शासन की सहनशीलता से कितनी अलग थी? क्या हम बहुत ज्यादा घबरा रहे हैं?
 
निश्चित तौर पर चिंता करने की वजहें भी हैं, जब कुछ लोग अपनी भाषा में इतने कठोर और बेरहम शब्दों का इस्तेमाल करने लगें। ऐसा करने वालों में सिर्फ भाजपा ही शामिल नहीं है, बल्कि वे भारत के उन लोगों में शामिल हैं जो भारत के कई हिस्सों में सत्ता में हैं।
 
अगर मैं पाकिस्तान में रहता तो मेरी चिंता सुन्नी कट्टरपन से जुड़ी होती, अगर मैं फ्रांस में रहता और बहुमत की ऐसी भाषा इस्तेमाल करता कि 'या तो मेरी शर्तों पर फ्रांसीसी बनो वरना नतीजे भुगतो।' तो चिंता करता। इस तरह की बातों का विरोध करने की आवश्यकता है।
 
जैसा कि 1975 में आपातकाल के दौरान हुआ या नंदीग्राम नरसंहार के वक़्त हुआ था। भाजपा के डराने-धमकाने को हमें अपवाद क्यों मानना चाहिए? सभ्यता के रूप में भारत कितना सहिष्णु रहा है?
 
इतिहास की बात करें तो भारत भी दुनिया के किसी दूसरे हिस्से की तरह कम या ज्यादा भला नहीं रहा है। हमें ये दावा करने की आवश्यकता क्यों है कि हम दूसरों से ज्यादा अच्छे रहे हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि निश्चित तौर पर हम वैसे नहीं रहे हैं। हमें अपने वर्तमान और अतीत को आलोचनात्मक दृष्टि से परखने की ज़रूरत है।
 
भारतीय इतिहास के छात्र भारत के अतीत में हिंसा की कोई कमी नहीं पाते हैं, चाहे ये धर्म आधारित हो, जाति, वर्ण या राजनीतिक बदले पर आधारित हो।
 
जैसा कि कई मिथकवादी दावा करते हैं लेकिन भारत में कभी भी 'स्वर्णयुग' नहीं रहा। हाँ, सहनशीलता या महानगरीय सहअस्तित्व के कुछ दौर ज़रूर रहे हैं। लेकिन ये वास्तव में दिलचस्प अपवाद थे, कोई तयसम्मत नियम नहीं।

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