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'दीदी आ गई तो उसे भी गोली मार दूंगा'

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, सोमवार, 11 मई 2015 (17:48 IST)
आलोक प्रकाश पुतुल, रायपुर 
 
'कई बार ऐसा हुआ, जब माओवादियों के साथ मुठभेड़ में मुझे लगा कि उस तरफ़ दीदी हुई तो क्या होगा? लेकिन सोच रखा था कि सामने दीदी आ गई तो उसे भी गोली मार दूंगा। मैं आख़िर पुलिसवाला था और दीदी माओवादी।
यह कहते हुए एसटीएफ़ के जवान अनिल कुंजाम भावुक हो जाते हैं और फिर अपनी दीदी शांति कुंजाम की तरफ़ देख कर मुस्कुरा देते हैं। शांति भी मुस्कुराती हैं और फिर अपने दोनों हाथ की उंगलियों को आपस में फंसाकर कुछ सोचने लग जाती हैं।
 
छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक छोटा-सा गांव है कोडोली। बीज़ापुर ज़िले के इस गांव के भाई-बहन शांति और अनिल की कहानी बिल्कुल मुंबइया फ़िल्मों जैसी है। हालांकि अब शांति आत्मसमर्पण कर चुकी है, लेकिन उनकी ज़िंदगी कई उतार-चढ़ावों से भरी रही है। 
 
दोस्ती और झड़प :  30 साल की शांति बताती हैं कि मैं 2001 में अपनी दो बहनों और भाई अनिल को छोड़कर अपने बड़े पिताजी के घर रहने के लिए जांगला आ गई थी। गांव में माओवादियों का आना-जाना लगा रहता था और गांव के दूसरे लोगों की तरह मैं भी माओवादियों की नियमित बैठक में आती-जाती रहती थी।
 
इधर कोडोली गांव में रह रहे अनिल कुंजाम ने गांव में ही साइकिल सुधारने की दुकान खोल ली। यहां भी माओवादी आते-जाते रहते थे लेकिन अनिल की माओवादियों से दोस्ती तो नहीं हुई, एकाध बार झड़प ज़रूर हो गई। इस बीच 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार के संरक्षण में माओवादियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू हुआ।
 
इस अभियान में आदिवासियों को हथियार दिए गए और उन्हें स्पेशल पुलिस आफिसर यानी एसपीओ का दर्जा देकर माओवादी और उनके समर्थकों से लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया गया।
 
सलवा जुडूम का असर :  सरकारी आंकड़ों की मानें तो सलवा जुडूम के कारण दंतेवाड़ा के 644 गांव खाली हो गए और उनकी एक बड़ी आबादी सरकारी शिविरों में रहने के लिए बाध्य हो गई। 
 
इस सलवा जुडूम से शांति और अनिल की पूरी दुनिया बदल गई। अनिल कहते हैं कि जब सलवा जुडूम के कारण गांव खाली होने लगे तो मैं माओवादियों की हरक़तों से नाराज़ रहता था, इसलिए मैं एसपीओ बन गया। 
 
घरवालों से किसी बात को लेकर शांति की लड़ाई हुई थी और उसी दौर में सलवा जुडूम के लोग जब गांव पहुंचे तो पूरा गांव जंगल में भाग गया। जंगल में रहते हुए शांति माओवादियों से मिलीं और उन्होंने उनके साथ काम करना शुरू कर दिया। शांति कई गीत सुनाती हैं, बस्तर के शोषण के, औद्योगिक जगत की लूट के, सरकारी उपेक्षा के। शांति को संगठन में यही जिम्मा दिया गया था। शांति बताती हैं कि मैं गांव-गांव जाकर भाषण देती, गीत सुनाती और युवाओं को माओवादी संगठन में शामिल होने के लिये प्रेरित करती थी।
 
छोटी बहनों की शादी :  इधर अनिल की दोनों बहनों की शादी हो गई लेकिन दीदी शांति का कहीं पता नहीं चल पा रहा था। अनिल को यह तो पता था कि बहन माओवादी बन गई है लेकिन वो कहां और किस हालत में है, ये नहीं मालूम था। 
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अनिल बताते हैं कि सलवा जुडूम के कारण मेरी दीदी और हमारे सारे रिश्तेदार बिखर गए। मैंने दीदी को सब जगह तलाशने की कोशिश की। जहां कहीं भी पता  चला कि माओवादियों का कोई दस्ता किसी इलाके में है, मैं अपने सूत्रों से दीदी की तलाश शुरू कर देता। लेकिन दीदी का कहीं पता ही नहीं चल पाता था। 
 
एसपीओ बनने के बाद भी उन्होंने शांति के बारे में पता लगाना जारी रखा। बाद में 2009 में उन्होंने छत्तीसगढ़ सुरक्षा बल (सीएएफ़) की 16वीं बटालियन में नौकरी मिली।
 
अनिल के अनुसार माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन में सीएएफ के लोग तो जाते थे, लेकिन स्पेशल टॉस्क फोर्स की तुलना में कम जाते थे। मुझे लगा कि इस नौकरी को करते हुए तो दीदी का पता लगाना मुश्किल है। मैंने फिर एसटीएफ ज्वाइन की।
 
'लोगों को पैसे देता था' :  अनिल बताते हैं कि वो अपनी तनख्वाह का आधा से अधिक हिस्सा केवल दीदी शांति की तलाश में लगा देते थे। अनिल ने बताया कि अलग-अलग गांव के लोगों को मैंने सेलफोन खरीद कर दिया था कि अगर दीदी किसी दस्ते के साथ नज़र आए तो मुझे खबर करना। लोगों को मैं पैसे देता था कि दीदी का पता चले तो बताना। 
 
उन दिनों को भावुकता से याद कर रहे अनिल की बातें सुनकर शांति हंस देती हैं और अनिल के चेहरे पर भी मुस्कुराहट फैल जाती है। शांति बताती हैं कि सीपीआई माओवादी के अलग-अलग दलम में काम करते हुए वे लगातार सक्रिय रहीं।
 
उन्हें 2013 में लोकल आर्गनाइजेशनल स्क्वॉड का कमांडर बना दिया गया। पुलिस के दस्तावेज़ में वे एक खतरनाक माओवादी के तौर पर दर्ज हो गईं और उन पर 5 लाख रुपए का इनाम घोषित कर दिया गया।
 
'घंटे भर रोते रहे' :  शांति कहती हैं, 'घरवालों की खूब याद आती थी। कंधे पर बंदूक लटका कर दिन-रात जंगलों की खाक छानते हुए लगता था कि बस समाज बदलना है। 
 
शांति बताती हैं कि अक्टूबर 2014 में संगठन से छुट्टी लेकर चुपके-चुपके अपनी बहन के घर मोपलनार पहुंची। शाम को भाई अनिल भी पड़ोस के गीदम इलाके से गुजरते हुए बहन के घर पहुंचे तो वे शांति को वहां पाकर भौंचक रह गए। 
 
अनिल बताते हैं कि दस साल तक जिस दीदी को सब जगह तलाश रहा था, वह सामने खड़ी थी। हम दोनों घंटे भर तक रोते रहे। दस साल के सारे सुख-दुख घर में पसरते रहे। भाई ने बहन को लौट आने के लिए कहा।
 
बाक़ी ज़िंदगी शांति से :  बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लुरी कहते हैं कि शांति और अनिल की पूरी कहानी फ़िल्मों जैसी है। अनिल के कहने पर शांति ने पिछले साल 22 अक्टूबर को आत्मसमर्पण कर दिया। शांति के आत्मसमर्पण करने के बाद से मिरतुर के इलाके में अब शांति है। 
 
अपने भाई अनिल और भाभी के साथ रह रही शांति को आत्मसमर्पण के बाद पुलिस आरक्षक का पद दिया गया है। शांति कहती हैं, “अब सब भूल जाना चाहती हूं, बस परिवार के साथ बाकी ज़िंदगी बिताना चाहती हूं। शांति से।

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