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पाकिस्तानः किराए की भीड़ का 'इंसाफ'

हमें फॉलो करें पाकिस्तानः किराए की भीड़ का 'इंसाफ'
, शुक्रवार, 26 जून 2015 (17:05 IST)
- सबा एतजाज, ताहिर इमरान (पंजाब, पाकिस्तान)
 
'लोगों को इकठ्ठा करना कौन-सा मुश्किल काम है? अभी फोन करूं सौ बंदे जमा हो जाएंगे। इतने पत्थर पड़ेंगे कि कुछ नहीं बचेगा और अगर बच गया तो दस रुपए का पेट्रोल बहुत है।'
शहर के पास के एक डेरे पर प्रभावशाली व्यक्ति ने यह बात उतनी ही आसानी से कही जैसे लोग नहीं, दाना डालकर पक्षी जुटाने हों। लेकिन सच है कि ऐसी कई प्रभावशाली हस्तियां मौजूद हैं जिनके हाथ में भीड़ की ताकत है जिसे वो अपने और दूसरों के फायदों के लिए इस्तेमाल करते हैं।
 
बात फायदों तक ही नहीं रुकती और बीबीसी उर्दू की पड़ताल के अनुसार, अक्सर ऐसी भीड़ के पीछे एक पूरा व्यापार संचालित होता है। हर व्यवसाय की तरह इसके भी रेट हैं, लाभ और वितरण प्रबंधन प्रणाली है।
 
'भीड़ का व्यापार' : इस जांच के दौरान हम एक प्रभावशाली डेरे पर पहुंचे जहां हथियारों से लैस बंदूकधारी मौजूद थे। इनमें से कुछ नाश्ता करने में मसरूफ थे जबकि कुछ अपने हथियारों की सफाई कर रहे थे और एक व्यक्ति जाहिरा तौर पर एक 'भीड़ को किराए पर देने का सौदा तय कर रहा था।'

हमने इस गिरोह के सरगना को फोन पर कहते हुए सुना कि 'काम बातों से नहीं होते उस पर पैसे लगते हैं, हथियार चाहिए होता है, वाहन जाते हैं।'
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गिरोह के सरगना ने बताया कि किसी भी तरह के काम के लिए पैसे लिए जाते हैं, जिनका आधा पहले खाते में जमा किया जाता है और काम होने पर बाकी रकम ली जाती है।
 
भीड़ में शामिल होने वाले लोगों के खाने-पीने की व्यवस्था की जाती है और अगर काम बड़ा हो तो उन्हें पैसे भी दिए जाते हैं। अगर कोई गिरफ्तार हो जाए तो उसे संरक्षण दिया जाता है और रिहा करवाने की गारंटी दी जाती है।
 
दूसरी ओर ख्वाजा साहब जैसे डेरेदार हैं जिन्होंने कुछ मिनटों में हमारे देखते ही देखते दर्जनों लोग इकट्ठा कर लिए। उनका कहना है कि भीड़ को 'सकारात्मक तरीके से' प्रयोग किया जाता है।

ख्‍वाजा साहब कहते हैं, 'जब शासक और अधिकारी वैध मांग स्वीकार नहीं करते तो इलाके के निवासी इन समस्याओं के समाधान के लिए मुझसे कहते हैं। हालत यह है कि मेरे इलाके के निवासी सरकार से अधिक मुझ पर भरोसा करते हैं।'
 
वह बताते हैं कि जब उनके इलाके में गैस की आपूर्ति नहीं की जा रही थी तो उन्होंने फोन किया और कुछ पल में हजारों की भीड़ इकट्ठा हो गई, जिसने पहले सड़क ब्लॉक की इसके बाद उसने रेलवे लाइन ब्लॉक की और आखिरकार इलाके के निवासियों को गैस की आपूर्ति हो गई।
 
'मां, बच्चे मारे गए' : ख्‍वाजा साहब स्वीकार करते हैं कि लोग अक्सर डेरों के प्रभाव का अवैध लाभ उठाते हैं। वो कहते हैं, 'देखें, अगर कोई मस्जिद से खड़ा होकर यह एलान करेगा कि फलाने ने ईशनिंदा की है तो लोग सच जानने की कोशिश नहीं करेंगे, वह मारेंगे पहले, पूछेंगे बाद में। गुस्साई भीड़ को काबू में करना किसी के बस की बात नहीं।'
 
पिछले साल जुलाई में इसी तरह की एक भीड़ ने गुजरांवाला में अहमदियों के घरों पर हमला किया था। झगड़ा क्रिकेट के मैदान से शुरू हुआ, लेकिन एक अहमदी युवा पर ईशनिंदा का आरोप लगा और उग्र भीड़ ने करीब एक दर्जन अहमदियों के घरों में आग लगा दी जिसमें झुलस कर एक ही परिवार के तीन लोगों की जान चली गई।
 
सारा (असली नाम बदल दिया गया है) इसी मकान में आग से बच जाने वाली वह महिला हैं जिनके नवजात बच्चे, दो भतीजियों और मां के जीवन का फैसला किसी अदालत ने नहीं बल्कि एक भीड़ ने इसी गली में किया। 
 
सारा उस भयंकर रात के बारे में कहती हैं, 'जब लोग हमारे घर जला रहे थे तब सभी औरतें और बच्चे एक कमरे में बंद थे। मेरी मां की धुएं की घुटन से मौत हो गई और मैं खुद भी एक हफ्ते तक जिंदगी और मौत के बीच झूलती रही।'
 
सारा कहती हैं कि उन्हें आज भी सांस की गंभीर बीमारी है लेकिन उनके मन से वह पल नहीं भुलाए जाते जब उनका परिवार आग की तीव्रता और धुएं से बिलबिला रहा था और बाहर जमा भीड़ ठहाके लगा रही थी और मकान के अंदर से सामान लूटा जा रहा था।
 
उन्होंने सिसकियां लेते हुए बताया, 'मेरी मां ने मुझसे आखिरी बार पानी मांगा और मेरे पास उन्हें देने के लिए पानी नहीं था। मेरी भतीजी ने सांस न ले पाने पर मेरे घुटने को जोर से दबोचा और फिर धीरे-धीरे मौत के आगोश में चली गई।'
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'समानांतर सरकार' : गुजरांवाला में एक हाफिजे कुरान की हत्या, कोट राधा किशन में एक ईसाई जोड़े की हत्या और जलाया जाना, सियालकोट शहर में दो भाइयों हाफिज मगीस और हाफिज मुनीब की एक भीड़ के हाथों हत्या और रहीम यार खान में खुद में खोए एक व्यक्ति को ईश निंदा के नाम पर जलाया जाना, भीड़ के हाथों न्याय के ऐसे कई उदाहरण हैं।
 
* इस तरह की बढ़ती घटनाओं को रोकने में प्रशासन विफल या बेबस क्यों दिखता है?
 
इस सवाल का जवाब देते हुए एसएसपी सुहेल सखेरह का कहना था, 'यह क्रमिक घटनाक्रम है कि आपने दस कर्मचारियों को कुछ नहीं कहा, फिर बीस नौकर इकट्ठे हो गए आपने उन्हें कुछ नहीं कहा, फिर सौ इकट्ठे हो गए। तो अब यह स्थिति है कि लोग पुलिस के सामने लोगों को जिंदा जला देते हैं। मेरे विचार में यह राज्य सरकार और पुलिस की नाकामी है।'
 
हालांकि इस व्यवसाय में शामिल एक और व्यक्ति ने बड़े आराम से कहा, 'यहां इन इलाकों में एक तरह की समानांतर सरकार काम कर रही है। पुलिस वाले हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, इसलिए मेरा उनसे अनुरोध है कि वह अपना काम करें और हमें अपना काम करने दें।'
 
जब तक सरकार इस तरह के व्यापार को रोकने के लिए कदम नहीं उठाती और जनता की सुरक्षा और न्याय का जिम्मा इन लोगों के हाथों में रहेगा, तब तक इस सब की कीमत मासूम लोग अपने घरों और जीवन की राख समेट कर चुकाते रहेंगे।

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