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'सोनिया गांधी कांग्रेस के लिए फेविकोल हैं'

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, शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015 (14:14 IST)
मधुकर उपाध्याय
 
सम्राट अशोक की विश्वप्रसिद्ध लाट में चार शेर हैं। चार दिशाओं में देखते। वही भारत का राजचिह्न है, जो ठीक भी है। दिक्कत ये है कि बाहर से देखने में किसी दिशा से केवल तीन शेर दिखाई पड़ते हैं। चौथा रहता तब भी है, पर नजर नहीं आता। सत्ता प्रतिष्ठान के संचालन का शायद इससे अच्छा प्रतीक दुनिया में कहीं नहीं है।
 
इसमें ताकत और गरिमा के साथ यह स्वीकारोक्ति है कि सत्ता के चार स्तंभों में एक ऐसा होगा जो दिखेगा नहीं, लेकिन परदे के पीछे से काम करेगा। उसकी भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं होगी।
 
सारी हिकमतें इसी चौथे अदृश्य शेर के पास होंगी। वह गोपनीय ढंग से अपने काम को अंजाम देगा। लोगों के बीच भरोसा बनाना और उसे क़ायम रखना एक पूरे और दो आधा दिखने वाले शेरों के जिम्मे होगा।
 
सत्ता और राजनीतिक पार्टियां सिद्धांतों के साथ-साथ रणनीतिक कौशल से चलती हैं। उन्हें सफलता तब मिलती है जब दोनों के बीच सामंजस्य हो।
 
इतिहास गवाह है कि सत्ता जैसी भी हो, राजशाही, तानाशाही से लेकर लोकतंत्र तक, भरोसे और हिकमत में तालमेल की कमी उनके गिरावट का कारण बनी है।
 
कांग्रेस पार्टी के लिए भरोसे का संकट सन 2009 की चुनावी कामयाबी के साथ ही दिखने लगा था। दोनों के बीच फासला आने वाले वर्षों में बढ़ा। उसे पाटने की हर कोशिश न सिर्फ नाकाम रही, बल्कि उसने दरार और गहरी कर दी।
 
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
 
बिखराव : राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि इसके लिए किसी एक को जिम्मेदार मानना ठीक नहीं है, लेकिन दोष-पाप पार्टी के मुखिया के रूप में सोनिया गांधी के सिर से हटाया नहीं जा सकता।
 
तर्क यह है कि अगर 1998 में पार्टी को संगठित करने से लेकर 2014 तक की सता का श्रेय उनका है तो नाकामयाबी भी उस खाते में ही जानी चाहिए।
 
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, 'पार्टी की इस हालत की जिम्मेदारी किसी और पर डालना घायल तिलचट्टे की गलत टांग पकड़ना और उसका इलाज करना है। राहुल गांधी को तो अभी पूरा मौका ही नहीं मिला है।'
 
एक अन्य नेता का कहना था, 'सोनिया गांधी कांग्रेस के लिए फेविकोल हैं। हार-जीत से ऊपर हैं। उन्हें पद पर बने रहना चाहिए, क्योंकि उनके हटने से पूरा ढांचा बिखर सकता है।'
 
फुसफुसाहट के तौर पर ही सही, पार्टी में एक वर्ग मानता है कि नेतृत्व की ‘संरक्षणवादी वृत्ति’ ने पार्टी और राहुल गांधी दोनों का अहित किया है। प्रयोगधर्मिता की कमी से कांग्रेस को नुकसान हुआ।
 
संभावनाओं की पहचान : संभावनाओं की पहचान कर उनको तराशना या मिटा देना सत्ता-संगठन के संचालन में चौथे शेर का काम है। उसका सर्वथा अभाव, खासकर पिछले पांच-छह वर्ष में साफ दिखाई पड़ा।
 
पार्टी ने न अनुकूल संभावनाएं तराशीं, न प्रतिकूल संभावनाओं को खत्म किया। ये दोनों काम इंदिरा गांधी ने बखूबी अंजाम दिए।
 
दस जनपथ के नजरिए से देखा जाए तो मुख्य रूप से चार ऐसे तथ्य हैं, जो सोनिया गांधी अच्छी तरह जानती-समझती हैं। उन पर यकीन रखती हैं।
 
पहला यह कि कांग्रेस के पास दस जनपथ का कोई विकल्प नहीं है, दूसरा कि पार्टी में सन साठ-सत्तर के दशक जैसा मजबूत सिंडिकेट नहीं है। तीसरा कि पार्टी में विरोध के सारे अंदरूनी स्वर मुक्त नहीं हैं। तमाम प्रतिक्रियाएं और टिप्पणियां पूर्वनिर्धारित हैं।
 
और इसी के साथ यह भाव भी है कि नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस का अतीत रहा है और वही इसका भविष्य भी है। इसके बाहर कांग्रेस की कल्पना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
 
सैद्धांतिक लड़ाई : निश्चित रूप से सोनिया गांधी इसी ‘गौरवशाली विरासत’ की रक्षा करते हुए सैद्धांतिक लड़ाई लड़ रही हैं। पार्टी का एक बड़ा तबका खुद को इस ‘विरासत’ से काटने में असमर्थ पाता है।
 
इतिहास पर सोनिया गांधी की गहरी पकड़ है और उन्हें यकीनन याद होगा कि 1929-30 में रावी नदी के किनारे मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल को पार्टी की कमान सौंपी थी। पार्टी की कमान पिता से पुत्र को जाने की यह पहली घटना थी, जिसमें एक भूमिका चौथे शेर की भी थी। इस कदम ने हिंदुस्तान की राजनीति और कांग्रेस की दिशा बदल दी। ‘पूर्ण स्वराज’ का आह्वान वहीं हुआ।
 
लेकिन यह बात 85 साल पहले की है। ताजा संदर्भ में सवाल केवल इतना है कि सोनिया की दुविधा के बावजूद, क्या वही हिकमत एक बार फिर काम आएगी? इस समय तो कोई चौथा शेर भी कांग्रेस पार्टी में नहीं है।

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