Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

ये जो पब्लिक है सब जानती है

हिंदी फिल्मों के राजनीतिक गीतों पर एक टिप्पणी

हमें फॉलो करें ये जो पब्लिक है सब जानती है

रवींद्र व्यास

देश की दो बड़ी पार्टियाँ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अपने प्रचार के लिए गीतों का सहारा ले रही हैं। कांग्रेस जहाँ जय हो गा रही है, वहीं भाजपा भय हो। इन दोनों गीतों में पार्टियाँ अपना प्रोपेगेंडा कर रही हैं। अपने को जनहितैषी सिद्ध करने की कोशिशें कर रही हैं लेकिन हम यहाँ जिन गीतों की बात करने जा रहे हैं, वे गीत किसी भी तरह के प्रचार से दूर, देश और लोगों की असल हालत का बयान करते हैं। भ्रष्ट नेताओं की पोल खोलते हैं। ये हिंदी फिल्मी गीत हैं। कुछ बेहद लोकप्रिय हुए, कुछ सुने-अनसुने कर दिए गए। इनमें कुछ गीत तो बहुत पुराने हैं लेकिन लगता है बातें आज की हैं। यही इनकी खासियत है। ये बेहद ही सरल जबान का इस्तेमाल करते हैं। ये सहज भी हैं और मार्मिक भी। कहीं-कहीं मारक भी।

ये हिंदी फिल्मों के राजनीतिक गीत हैं। इसमें अपनी जनता के प्रति गहरा प्रेम है। लगाव है। नेताओं के प्रति गुस्सा है। उनका पर्दाफाश करने का साहस है। मजे-मजे से नेताओं का उपहास है। इन गीतों पर सरसरी निगाह भी डाली जाए तो जो गीत एकदम ध्यान आता है वह है फिल्म रोटी का गीत- ये जो पब्लिक है सब जानती है। इसे आनंद बक्षी ने लिखा था। हालाँकि इस गीत का टोन व्यंग्य का है लेकिन यह उस वक्त खासा लोकप्रिय हुआ था। इस गीत से कांग्रेस ने अपना एक नारा भी बनाया था। जैसे सिंग इज किंग गीत का इस्तेमाल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि चमकाने के लिए किया गया था लेकिन ये जो पब्लिक है सब जानती है गीत बहुत ही स्थूल रूम में ही सही राजनीति के मुखौटे को नोंचने की कोशिश करता है। अजी अंदर क्या है, अजी बाहर क्या है जैसी पंक्तियाँ राजनीति के आडंबर और पाखंड को बहुत ही लोकप्रिय अंदाज में बताती हैं।

इसी तरह श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टु सज्जनपुर का गीत ये प्रजातंत्र है-ये प्रजातंत्र है इससे थोड़ा बेहतर गीत है। इसमें व्यंग्य तो है ही लेकिन समकालीन राजनीतिक यथार्थ को उघाड़ने का अंदाज निराला है। इसे लिखा है अशोक मिश्रा ने। गीत के बोल दिलचस्प हैं और तंज ज्यादा करारा है। गीत देश की आजादी की बात करता हुआ वोट की ताकत भी बताता है और यह भी बताता है कि कालांतर में वोट की ताकत को नोट की खन-खन-खन ने कैसे गूँगा बना दिया है। गीत बहुत तीखे अंदाज में नेताओं को साँप कहता है और लोकतंत्र के गिरते मूल्यों को अभिव्यक्त करता है-

खिल रही थी कली कली, महके थी हर गली
आप कभी साँप हुए हम हो गए छिपकली
सत्ता की ये भूख विकट आदि है न अंत है
अब तो प्रजातंत्र है अब तो प्रजातंत्र है।

इसके बाद वे इसी गीत में पार्टी फंड यत्र घोटाला को राजनीतिक मंत्र कहते हुए इसे ज्यादा प्रासंगिक बनाते हैं।

लेकिन देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालातों का जैसा हाहाकारी यथार्थ प्यासा के गीत में साहिर लुधियानवी बताते हैं वैसा शायद हिंदी फिल्मी गीतों में कम ही संभव हो पाया है। बोल हैं- जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहाँ हैं। यह वह दौर था जब आजादी के लिए देखे गए स्वप्न का टूटना शुरू हुआ था। साहिर ने अपनी पैनी निगाह से तत्कालीन समाज के भयावह यथार्थ का करीबी से चित्रण किया है और लिखा है कि जो देश पर गर्व करते थे वे कहाँ गायब हो गए हैं क्योंकि आज आम लोगों का जीवन कितना पीड़ादायी और असहनीय हो गया है।

साहिर ने उन तमाम वंचितों और शोषितों के दर्द को एक दर्दीली आवाज दी। वे इस गीत में लिखते हैं कि जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ और ये कूचे, ये गलियाँ और ये मंजर दिखाओ। क्योंकि उस समय लोग अपनी बुनियादी जरूरतों से भी वंचित थे। लेकिन इस गीत की खासियत यह है कि यह गीत अपने समय को पार करता हुआ हमारे वर्तमान समय के हाहाकार का भी गीत बन जाता है। आज सचमुच वे लोग कहाँ गए जिन्हें हिंद पर नाज था क्योंकि आज एक तरफ लगातार बेरोजगारी बढ़ रही है, महँगाई बढ़ रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं और औरतों पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं। जाहिर है यह गीत आज कहीं ज्यादा मौजूँ और मार्मिक सुनाई पड़ता है। यह गीत राजनीतिक प्रतिरोध का गीत बन जाता है और राजनेताओं का आईना बताता है कि देखो तुमने इस देश की क्या हालत कर दी है।

साहिर ने ही इज्जत फिल्म में एक गीत लिखा था जिसमें वे उजले कपड़ों के भीतर काला बाजार चलने की बात करते हैं। उस गीत के बोल कुछ यूँ हैं कि -

देखें इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले,
उजले कपड़ों की तह में कब तक काला बाजार चले।

और नाच घर के लिए उन्होंने लिखा-

कितना सच है कितना झूठ
कितना हक है कितनी लूट
ढोल का ये पोल सिर्फ देख ले
ऐ दिल जबाँ न खोल सिर्फ देख ले।

उसी समय हिंदी फिल्मों में एक से एक गीतकार अपनी लेखनी से समाज के हालातों का बयान कर रहे थे। इनमें साहिर के साथ ही शैलेन्द्र, कैफी आजमी जैसे कई अन्य गीतकारों ने भी ऐसे गीत लिखे। एक के बाद एक फिल्म में कैफी ने लिखा-

उजालों को तेरे सियाही ने घेरा
निगल जाएगा रोशनी को अँधेरा।

जाहिर है कैफी आजमी ने अपनी शायरी के अनोखे अंदाज के साथ कुछ गहराई से राजनीतिक यथार्थ को रचने की सार्थक कोशिशें की। उन्हीं का लिखा फिल्म संकल्प का वह गीत भी याद किया जा सकता है जिसमें उन्होंने बापू को नीलाम तक करने की बात का दुःख प्रकट किया था। उन्होंने भी वोट की राजनीति में नोट की ताकत को ताड़ लिया था और उसके पतन का जिक्र बड़ी खूबी से किया था। उसमें दुःख भी था, सचाई भी और व्यंग्य भी। गौर कीजिए-

हाथों में कुछ नोट लो,फिर चाहे जितने वोट लो
खोटे से खोटा काम करो, बापू को नीलाम करो

गुलजार न केवल अपनी फिल्मों के लिए बल्कि गीतों के लिए भी खासे जाने जाते हैं। उनका ढंग सबसे जुदा है। वे गहरे राजनीतिक आशयों वाली फिल्में आँधी और माचिस बना चुके हैं। आँधी के ही एक गीत में वे कितना गहरा तंज करते हैं-
सलाम कीजिए

आलीजनाब आए हैं,
यह पाँच साल का देने हिसाब आए हैं।

हू-तू-तू में तो वे साहस के साथ दो टूक कहते हैं कि -
हमारा हुक्मराँ अरे कमबख्त है
बंदोबस्त, जबरदस्त है।

जाहिर है उनका कहने का ढंग गजब है और वे पूरी राजनीतिक व्यवस्था की पोल का अपनी अचूक लेखनी से पर्दाफाश करते हैं। इसकी मिसाल देखना हो तो इसी फिल्म के दूसरे गीत के बोल पर गौर करें-

घपला है भई
घपला है, जीप में घपला, टैंक में घपला

जाहिर है गुलजार की नजर तत्कालीन बड़े घोटालों पर है और वे इसे मजे-मजे में अभिव्यक्त करते हैं। और अपने प्रेम गीतों के साथ ही राजनीतिक गीतों को बखूबी लिखने का कौशल जता जाते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारे हिंदी फिल्मी गीत भी हमारे समय का आईना बनते हैं और इस समय के राजनीतिक गीत बनते हैं जिनमें देश और देश की जनता का दर्द भी है, राजनीति पर तीखा व्यंग्य भी है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi