टिकट सस्ता था तब भी लोग सिनेमा देखते थे और महँगा है तब भी देखते हैं। महँगाई का बहुत ज्यादा असर समाज पर नहीं पड़ा है। पड़ता भी नहीं है। हालाँकि यह शोर हमेशा मचा रहता है कि महँगाई बहुत बढ़ गई है और गरीब लोगों का जीना दूभर हो गया है।
जब एक रुपए का बीस सेर आटा मिलता था, तब भी लोग कहते थे कि हाय क्या जमाना आ गया है, आटा रुपए का बीस सेर हो गया है, वो भी क्या दिन थे कि जब एक रुपए में पचास सेर आटा मिला करता था।
पुरानी फिल्में, पुराने उपन्यास, पुरानी कहानियाँ... किसी में भी यह नहीं है कि वर्तमान समय बहुत अच्छा है, महँगाई बिलकुल नहीं है, गरीबों की बहुत पूछ-परख है, बेईमान मजे में नहीं हैं वगैरह-वगैरह।
मनोज कुमार की फिल्म "रोटी कपड़ा और मकान" का गाना "महँगाई मार गई" हिट था और आमिर खान की फिल्म "पीपली लाइव" का "महँगाई डायन" भी। मनोज कुमार की फिल्म सन 74 में रिलीज हुई थी और आमिर खान की 2010 में। 2040 में भी महँगाई पर रचा हुआ गाना हिट ही रहेगा।
महँगाई शायद बाजार का एक नियम है, कुदरत का एक औजार है। महँगाई बढ़ती है और उसके असर में आने वाली हर चीज महँगी हो जाती है। अगर आपका श्रम या काम समाज के लिए हितकारी है, तो आपके काम का दाम भी बढ़ जाता है।
जब रुपए का बीस सेर गेहूँ मिलता था तो चौराहे पर मजदूर पचास पैसे में मिल जाया करता था। अब अगर हर चीज महँगी है, तो मजदूर की मजदूरी भी महँगी है। चौराहे पर खड़ा रोजनदारी करने वाला भी दो सौ रुपए से कम में नहीं आता।
सरकारी कर्मचारियों के लिए सरकार महँगाई भत्ता देती है और प्राइवेट काम करने वाले यदि अपने संस्थान के लिए उपयोगी हैं, तो उनका वेतन भी संस्थान को बढ़ाना ही पड़ता है। नहीं बढ़ाएँगे तो वे लोग काम छोड़ जाएँगे। प्रतिद्वंद्वी संस्थान उन्हें ले उड़ेगा।
मगर जो लोग काम के नहीं हैं, झिझक के चलते जिन्हें निकाला भी नहीं जा सकता, उनका वेतन नहीं बढ़ाया जाता। यह संकेत होता है कि आप हमारे काम के नहीं हैं, कृपया दूसरा दरवाजा देख लें।
बात हालाँकि कू्ररतापूर्ण लगती है, मगर फालतू चीजों और फालतू लोगों से छुटकारा पाने में महँगाई बहुत उपयोगी है। महँगाई के कारण आप वहीं पैसा लगाते हैं, जहाँ ज्यादा जरूरी है। कोई अर्थशास्त्री इसे ज्यादा अच्छी तरह समझा सकता है।
जिस भी आदमी को महँगाई के कारण गुजारे में दिक्कत होती है, उसे चाहिए कि वो परिस्थितियों का निरीक्षण करे। जहाँ बदलाव जरूरी है, वहाँ बदलाव लाए। कुछ ऐसा करे जिसके बिना लोगों का काम नहीं चल सकता हो।
समाज में चैन से वही रहता है, जो समाज के लिए उपयोगी है। कई बार प्राइवेट क्लर्क से ज्यादा कमाई पानीपताशे बेचने वालों की होती है। होनी भी चाहिए। पानीपताशे बेचने वाला सैकड़ों लोगों की कितनी स्वादेंद्रियों की तृप्ति करता है। क्लर्क बस अपनी इज्जत लिए बैठा रहता है। महँगाई बढ़ती है तो पानी पताशेवाला रेट बढ़ा देता है। क्लर्क वेतनवृद्धि के लिए गिड़गिड़ाता रहता है।
फिल्मी सितारों को इतना पैसा क्यों मिलता है? क्योंकि वो आपके लिए जरूरी हैं। मनोरंजन के बिना आदमी नहीं रह सकता। सितारे मनोरंजन करते हैं, कल्पना की दुनिया में ले जाते हैं।
महँगाई से तकलीफ केवल उन्हें ही होती है, जो निठल्ले हैं। निठल्ले और अकर्मण्य लोग हमेशा ही तकलीफ में रहते हैं। क्या सौ साल पहले लोग भीख नहीं माँगा करते थे? सौ साल पहले तो हर चीज बहुत सस्ती थी।
सिनेमाघरों में जब टिकट महँगे हुए और बालकनी के टिकट पचास-साठ रुपए तक हो गए तो कुछ दिन सन्नाटा खिंचा रहा। फिर एकल थिएटर की बालकनी वापस भरने लगी। अब हालत यह है कि मल्टीप्लेक्स और सिंगल थिएटरों में कोई फर्क नहीं रह गया। अगर भीड़ खींचने वाली फिल्म लगी है तो मल्टीप्लेक्स में भी वही दर्शक आते हैं, जो पहले आगे बैठ कर चीखते थे और गानों पर चिल्लर लुटाया करते थे।
महँगाई का फर्क मनोरंजन पर तो नहीं पड़ा है। मनोरंजन बढ़ा है। टीवी पर बहुत चीजें दिखाई जाती हैं। मगर साथ ही मनोरंजन की भूख भी बढ़ी है। ये भूख पैदा होती है जिंदगी के खालीपन से, व्यर्थता से। महँगाई पहले भी बहुत मायने नहीं रखती थी और अब भी नहीं रखती।