अभिनय ऐसी कला है, जिसमें अभिनेता परकाया प्रवेश के बाद बाहर उसी रूप में निकलकर आता है, जिसमें वह पहले था। हर किरदार को जामा पहनाते हुए खुद की पहचान को भूल जाना और उस रोल को जीना ही सच्चे अभिनेता की क्षमता का पैमाना है, पर समय के साथ फिल्मों की बदलती शैली, करवट लेती नई कहानियाँ, नए रंगों के पात्रों के साथ अभिनेता की चुनौतियाँ भी बढ़ती जाती हैं।
खुद को हर फिल्म के साथ अलग अदा में पेश करने का दबाव तो होता ही है। साथ ही उस फिल्म को व्यावसायिक सफलता के पायदान पर ले जाना भी होता है। जो कलाकार वक्त के साथ चलते हुए सफलता और विफलता को स्वीकार करते हैं और उसकी सीख लेकर फिर से कुछ नया और बेहतर देने की कोशिश करते हैं, वही अपने काम को दिनोंदिन और बेहतर करने में सफल होते हैं।
पिछले दशकों में जो कलाकार अभिनय के क्षेत्र में उसी ऊर्जा के साथ काम कर रहे हैं, उनमें अमिताभ बच्चन, आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान, अजय देवगन, संजय दत्त आदि हैं। इन कलाकारों में एक समानता है कि इन्होंने सामने आने वाली बदलाव की चुनौतियों को स्वीकारा ही नहीं वरन उसके बाद और भी मुखर होकर व निखरकर सामने आए।
अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने हर तरह के हालात में अपनी शैली को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया। अमिताभ ने हर तरह की भूमिका, हर दौर की चुनौतियों की कसौटी का सामना किया है और आज भी कर रहे हैं। क्या कोई एक नाम ऐसा बता सकता है, जो उम्र के इतने सारे तनावपूर्ण पड़ावों को पार करने के बाद आज भी काम कर रहा है?
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शाहरुख खान इन सबमें ऐसे कलाकार हैं, जिनकी शुरुआती फिल्मों में जैसे सनकीनुमा पात्र होते थे, आज भी वे तकरीबन उसी तरह के पात्र निभाते हैं। उनकी प्रारंभिक फिल्मों में "दीवाना", "बाजीगर" और "डर" जैसी फिल्में थीं, जिनमें शाहरुख अभिनीत किरदार अजीब-सी घुटन लिए होते थे। उन पात्रों में एक कुंठा होती थी, जो सनकीपन को हवा देती थी। आज शाहरुख से जिस स्तर की फिल्मों की उम्मीदें की जाती हैं, वे उससे बदतर फिल्में पेश करते हैं। उनके किरदारों में दोहराव होता है। ऐसा नहीं है कि वे सफल नहीं होतीं, लेकिन क्या केवल सफलता का मापदंड अभिनय कला के भी पैमाने तय कर सकता है?
उन्होंने नए निर्देशकों के लिए "मन्नात" के दरवाजे बंद कर रखे हैं। उन्होंने स्वयं को एक दायरे में बाँध रखा है। उससे बाहर की घटनाएँ उन्हें नहीं प्रभावित करतीं। अगर वे नए प्रतिभाशाली निर्देशकों की कहानियों पर भी ध्यान देते तो उनकी हस्ती और बड़ी हो जाती।
आमिर खान समय के साथ न सिर्फ बदले हैं, बल्कि ऐसे रथ पर सवार हैं, जिसमें कई घोड़े जुते हैं। इनमें सफलता का घोड़ा प्रमुख है। साथ ही सामाजिक सोद्देश्यता को भी उन्होंने जोत रखा है। सारथी भी स्वयं ही हैं। उन्होंने खुद से ईमानदारी बरतते हुए इतना बड़ा सफर तय किया है। वे कामयाबी पर बहुत खुश होते हैं, लेकिन नाकामयाबी मिलने पर उससे घबराते नहीं, बल्कि की गई गलतियों को सामने रखते हैं। फिर बैठकर सोचते हैं कि अगली बार कम से कम इन गलतियों का दोहराव न हो।
उन्होंने इस बात की कभी चिंता नहीं की कि उनकी एक फिल्म आने में २ साल का वक्त लग जाता है। वे जानते हैं कि दर्शक उनसे क्या अपेक्षा करते हैं। इससे भी जरूरी बात उनके लिए यह होती है कि वे खुद से क्या अपेक्षा करते हैं। इन्हें पूरा करने के लिए वे मौलिक सृजन का रास्ता अपनाते हैं। "कयामत से कयामत तक" के चॉकलेटी हीरो से लेकर "थ्री इडियट्स" के विविधरंगी पात्र तक वे कई बार बदले, कई बार बिखरे, लेकिन फिर से अपनी उसी लय को पाने में कामयाब रहे। साहसिक निर्णय लेने में भी वे सबसे आगे हैं।
अजय देवगन बहुत खामोशी से अपना सफर तय करने वाले कलाकार हैं। वे अपने अंतर्कलहों को भी खामोशी के लबादे में लपेट लेते हैं। प्रारंभिक काल में उनके निभाए पात्रों की प्लास्टिकनुमा संवेदनाएँ शायद उन्हें बहुत कचोटती रही होंगी। उन्हीं आघातों ने ऐसा बदलाव लाया कि अजय के भावशून्य कहे जाने वाले चेहरे पर अब भावनाएँ खेलती हैं, वहीं अजय जिनका "फूल और काँटे" से प्रवेश हुआ था, आज "गंगाजल", "ओमकारा", "अपहरण" और "राजनीति" जैसी फिल्मों से नई तस्वीर गढ़ रहे हैं। उन्होंने स्वयं में परिवर्तन के ऐसे बीज बोए हैं, जो मीठे फल अब देने लगे हैं। उनकी गंभीरता ही उनकी अदाकारी के हर महीन रेशे को बुनती है।
सैफ अली खान ने भी काफी संघर्ष के बाद अपनी खास अदा विकसित की है, जो और किसी के पास नहीं है। उन्होंने वक्त के साथ बदलते हुए "ओमकारा", "दिल चाहता है", "हम-तुम", "लव आजकल" जैसी कई फिल्में दीं, जिनमें भावों के आवेग की तीव्रता को चरम और स्वाभाविक रूप में व्यक्त किया। यही स्वाभाविकता उनकी शक्ति है, जिसमें वे कठिन दृश्यों को भी बहुत आसानी से कर जाते हैं।
संजय दत्त एकमात्र ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने त्रासदीपूर्ण जीवन की साँझ के बाद बहुत शांत और ऊर्जा से भरी सुबह देखी। उनकी कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है, पर आज वे सारी चुनौतियों को धराशायी करके सरपट दौड़ते कामयाबी के घोड़े पर सवार हैं।
आज प्रत्येक अभिनेता चाहता है कि वह अपनी सभी फिल्मों में अलग दिखे, अलग शैली दर्शकों के सामने प्रस्तुत करे। यह चाहत केवल कामयाबी के दृष्टिकोण से नहीं है, बल्कि यह उनका खुद को मापने का ढंग है। यही सोच अभिनेता को परफेक्ट बनाती है। किसी और से मुकाबले के बजाए खुद से मुकाबला करने से इंसान और भी ऊँचाई पर काबिज हो जाता है।