यह कहानी है क्राइम थ्रिलर...। मामला संगीन है। किस्सा गुमशुदगी का है। वह भी एक-दो नहीं, कई-कई गुमशुदगियों का...! कुछ चिर-पिरिचित लोग, जिन्हें हम अपने आसपास के सिनेमाघरों में अक्सर देख लेते थे, न जाने कब उन सिनेमाघरों और हमारी जिंदगियों से चल दिए। आज तक पलटकर नहीं आए।
जाने क्या भूल हुई हमसे जो वे यूँ हमें छोड़कर चले गए! हम तो बरसों उन्हें पर्दे पर देख-देखकर भी कभी बोर नहीं हुए, शायद वे ही हमसे उकताकर मुँह मोड़ गए। रुपहला पर्दा अब भी आबाद है, नित नए किरदार और कुछ नए स्टीरियोटाइप अब भी सिनेमा की रौनक बनाए रखे हुए हैं मगर जो इनके लिए जगह खाली कर गए, उन फिल्मी किरदारों की याद हमें बरबस आ ही जाती है।
गाँव की गोरी
पहले यह हर दूसरी फिल्म में हमें मिल जाती थी। सखियों संग पनघट पर पानी भरने जाती हुई, शादी-त्योहार-मेले में नाचती-गाती हुई या फिर यूँ ही मटक-मटककर गाँव की गलियों से गुजरती हुई। अक्सर यह किसी 'सहरी बाबू' के प्रेम में पड़ जाती और हैप्पी दि एंड से पहले थोड़े-बहुत दुःख सह लेती। गाँव के पास-पड़ोस में कोई डाकुओं की बस्ती होती, तो गाँव की गोरी की फिल्म में उपयोगिता और बढ़ जाती। उसी को तो वे उठा ले जाते और हीरो की शक्ल में अपनी मौत को बुलाते!
हमारे फिल्मी मानकों के अनुसार हीरोइन का भोली-भाली, गंगा की तरह पवित्र होना जरूरी था और गाँव वाली हीरोइन होने से उसमें ये गुण अधिक विश्वसनीयता से आरोपित किए जा सकते थे। कम से कम मान्यता तो यही थी। खैर, अब फिल्मों में गाँव ही गायब हो गए हैं। यदा-कदा किसी 'दबंग' में कोई गाँव दिख भी जाए तो उसकी रज्जो में वह बात नहीं मिलती जो असल गाँव की गोरी में हुआ करती थी।
डाकू खूँख्वार सिंह
किसी फिल्म में गाँव हो तो डाकू वहाँ अक्सर आ ही जाते थे। रौबदार मूँछें, कंधे पर बंदूक, शानदार घोड़ों की सवारी, मातहतों द्वारा मुखिया को 'ठाकुर' या फिर 'सरदार' कहकर संबोधित करना...। ये तो थे फिल्मी डाकुओं के न्यूनतम साझा कार्यक्रम। इसके आगे वे मोटे तौर पर दो समूहों में विभाजित थे : हीरो डाकू और विलेन डाकू।
यदि हीरो डाकू होता, तो उसके डाकू बनने का औचित्य सिद्ध करने हेतु उस व उसके परिवार पर हुए जुल्मों की कथा शुरुआती रीलों में अथवा फ्लैशबैक में जरूर परोसी जाती थी। चूँकि यह डाकू फिल्म का हीरो होता, अतः वह मूल रूप से बुरा इंसान नहीं होता था। वह केवल जालिमों को ही लूटता-सताता था। महिलाओं को वह बुरी नजर से नहीं देखता था। किसी कन्या को वह परिस्थितिवश उठा भी लाए, तो बाकायदा किसी पंडित को भी उठवा लाता और उससे (यानी कन्या से) शादी रचाता।
दूसरी ओर यदि डाकू विलेन होता, तो वह डाकू किन परिस्थितियों में बना, यह बताना न लेखक के लिए जरूरी था और न इसे जानना दर्शकों के लिए। यह डाकू बेगुनाहों को सताता, क्रूरता की हदें पार करता, महिलाओं खासकर हीरोइन या फिर हीरो की बहन को बुरी नजर से देखता। कुल मिलाकर इस डाकू के हीरो के हाथों मरने पर तालियाँ पिटना जायज था, जबकि हीरो डाकू की मौत पर आँसुओं की दरकार होती थी।
सीढ़ी, सिगार और डैडी
अमीर-गरीब की खाई भारत में सदा रही है और भारतीय फिल्मों में भी। अमीर हीरोइन को गरीब हीरो से प्यार होना सामाजिक समरसता की दिशा में क्रांतिकारी कदम था और ऐसी क्रांतियाँ कभी हर दूसरी-तीसरी फिल्म में हुआ करती थीं। उस सूरत में हीरोइन के रईस पिता का किरदार अहम हो जाता। कभी वह बेटी को आदेश देता, कभी उसके गरीब प्रेमी को रुपए का लालच देकर बेटी की जिंदगी से दूर करने का असफल प्रयास करता (हीरो उसके सामने ही उसका दिया चेक फाड़कर अपने प्यार को सच्चा साबित करता)।
यह सब करने के लिए उसका प्रिय ठिकाना होता अपने महलनुमा घर के ड्रॉइंग रूम से ऊपर जाती भव्य, सजीली सीढ़ियों का ऊपरी सिरा। वह रेशमी ड्रेसिंग गाउन पहने होता तथा रईसी के एक और प्रतीक के तौर पर उसके हाथों में सिगार या फिर पाइप जरूर होता।
यहीं से वह अपनी बेटी की बगावत का साक्षी बनता और यदि कहानी में टि्वस्ट की जरूरत होती तो छाती पकड़कर उन भव्य, सजीली सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ नीचे भी आ जाता। नए जमाने के फिल्मी डैड वो पहले वाले फिल्मी डैडियों जैसा रौब कहाँ दिखा पाते हैं!
माँ के पास आँसू हैं!
शशि कपूर ने भले ही फख्र से कहा हो,'मेरे पास माँ है' मगर माँ अमूमन हर हीरो के पास होती ही थी। यह माँ उसूलों और नियमों की बड़ी पाबंद होती। लेखक द्वारा प्रस्तुत और दर्शकों द्वारा अनुशंसित नियमों के चलते वह सफेद साड़ी में लिपटी होती, सिलाई मशीन चलाकर बच्चे पालती और आँखों से गंगा-जमना बहाती रहती। हीरो उस पर जान छिड़कता और वह हीरो पर गाजर का हलवा न्योछावर करती।
क्लाइमेक्स में वह विलेन के अड्डे पर रस्सियों से बाँधे जाने और विलेन द्वारा कनपटी पर रिवॉल्वर अड़ाए जाने के भी काम आती। चूँकि हीरो ने माँ का दूध पीया होता (जैसा कि हमें बराबर याद दिलाया जाता), अतः वह माँ को भी छुड़ा लेता और विलेन को भी निपटा देता।
रामू काका बहना रानी आदि
बड़े घरों में रौबदार डैडी होते, तो वफादार सेवक भी होते। घर के लोग उन्हें नौकर नहीं, घर का सदस्य मानते और हीरो/हीरोइन उन्हें काका कहकर बुलाते। ये काका आम तौर पर रामू ही होते। वे विपरीत परिस्थिति में भी परिवार का साथ नहीं छोड़ते और कभी-कभी अपनी जान देकर मालिकों को बचाते।
फिर हीरो की बहन का किरदार होता, जो एक अदद राखी गीत के साथ-साथ कहानी में दहेज के एंगल या रेप सीन का स्कोप निर्मित करता। एक होती थी विलेन की संगिनी, जो कैबरे में भी उतनी ही पारंगत होती जितनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाने में। नए जमाने की हीरोइन ने मल्टीटास्किंग करते हुए इसे बेरोजगार कर दिया है।
हिन्दू हीरो का एक मुस्लिम दोस्त भी हुआ करता था, जो उसके प्रेमपत्रों का वाहक बनता और मौका आने पर कव्वाली गाने भी बैठ जाता। दोस्त की खातिर वह जान देने को तैयार रहता और अक्सर यह तैयारी उसके काम भी आती। फेहरिस्त और भी आगे जा सकती है। गुमशुदा और भी हैं। जैसा कि हमने पहले भी कहा, मामला संगीन है...।