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रक्तचरित्र-1 : रक्त से लथपथ

हमें फॉलो करें रक्तचरित्र-1 : रक्त से लथपथ

समय ताम्रकर

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निर्माता : शीतल विनोद तलवार, मधु‍ मैंटेना
निर्देशक : रामगोपाल वर्मा
कलाकार : विवेक ओबेरॉय, शत्रुघ्न सिन्हा, अभिमन्यु सिंह, सुशांत सिंह, जरीन वहाब, आशीष विद्यार्थी, राजा कृष्णमूर्ति, श्रीनिवास राव
* केवल वयस्कों के लिए * 16 रील * 2 घंटे 14 मिनट
रेटिंग : 2/5

’रक्तचरित्र-1’ शुरू होते ही स्पष्टीकरण ‍लिखा हुआ आता है कि सारे पात्र और कहानी काल्पिनक हैं। अगले ही ‍पल दिखाई देता है कि फिल्म एक सच्ची कहानी पर आधारित है। शायद कानूनी उलझनों से बचने के लिए रामगोपाल वर्मा को विरोधाभास बातें साथ करनी पड़ी हो।

‘रक्तचरित्र’ की कहानी आंध्रप्रदेश के रवि परिताला और उसके विरोधी सूरी पर आधारित है। रामू ने उससे प्रेरणा लेकर, कुछ अपनी कल्पना मिलाकर ‘रक्तचरित्र’ को दो भागों में बनाया है।

पहले भाग में दिखाया गया है कि किस तरह अपने पिता और भाई की हत्या होने के बाद रवि (फिल्म में प्रताप) अपना बदला लेता है। इन हत्याओं में नरसिम्हा देवा रेड्डी (राजा कृष्णमूर्ति), नागमणि रेड्डी (श्रीनिवास राव) और मंदा (आशीष विद्यार्थी) का हाथ रहता है।

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जब तीनों को प्रताप मार डालता है तो नागमणि का बेटा बुक्का रेड्डी(अभिमन्यु सिंह) उससे बदला लेने के लिए उतावला हो जाता है। बुक्का एक तरह से राक्षस है। गुस्सा उसकी नाक पर रहता है। जो लड़की पसंद आती है उसे वह उठा लेता है। क्रूरतम तरीके (गन्ने की चरखी से सिर काट देना, आरा मशीन से धड़ अलग कर देना आदि) से हत्या करना उसे पसंद है।

बुक्का के भाई के खिलाफ एक सुपरसितारा और राजनेता (असल में एनटी रामाराव) की मदद से प्रताप चुनाव जीत जाता है और बुक्का का अंत करता है। फिल्म के दूसरे भाग में दिखाया जाएगा कि रवि की राह में सूरी नाम की एक ओर बाधा है।

फिल्म उन लोगों के लिए रूचिकर हो सकती है, जो आंध्र प्रदेश की राजनीति को नजदीक से जानते हैं, लेकिन जो लोग इन्हें जानते नहीं हैं उन्हें यह एक रूटीन कहानी लगती है जिसमें एक-दूसरे के परिवार के सदस्यों को मारकर सिर्फ बदला लिया जा रहा है।

‘रक्तचरित्र’ के जरिये यह बताने की कोशिश की गई है कि अभी भी भारत के कई गाँवों में जंगल राज चलता है। कुछ गुंडे किस्म के लोग ऐसे हैं, जो कानून, पुलिस, अदालत से ऊपर हैं। लेकिन इस बात को बड़े ही अतिरेक तरीके से कहा गया है। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह से लिखा गया है कि हिंसक दृश्यों की भरमार हो।

फिल्म के सारे किरदार इंसानों को गाजर-मूली की तरह काट देते हैं। उनके लिए हत्याएँ करना चुटकी बजाने जैसा है, इससे फिल्म अविश्वसनीय हो गई है। दरअसल हिंसा को दिखाने के लिए अन्य बातों को ताक में रख दिया गया है।

फिल्म में हिंसा को क्रूरतम तरीके से दिखाया गया है। हर मिनट चाकू, छुरे घोंपे जाते हैं। चारों ओर खून ही खून नजर आता है। लोगों को गोलियाँ मारी जाती हैं। हाथ-पैर-सिर काटे दिए जाते हैं। पत्थरों से सिर कुचल दिया जाता है। इतनी हिंसा देखना हर किसी के बस की बात नहीं है।

फिल्म की शुरुआत में किरदारों का परिचय बेहद लंबा है, जिसकी कमेंट्री बेहद बचकाने तरीके से की गई है। निर्देशक के रूप में रामगोपाल वर्मा ने दक्षिण भारतीय दर्शकों को ध्यान में रखकर वैसा ही टच दिया है। हालाँकि उन्होंने एक साधारण कहानी को स्क्रीन पर इस तरीके से पेश किया है बोरियत नहीं होती है। लेकिन उनसे भी ज्यादा काम किया है एक्शन डायरेक्टर एजाज-जावेद ने।

रामू की फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक अब दोहराव का शिकार हो गया है। ‍’रक्तचरित्र’ में भी बैकग्राउंड में श्लोक सुनाई देते हैं। सुखविंदर सिंह पर फिल्माया गया गीत ठूँसा हुआ लगता है।

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विवेक ओबेरॉय ने अभिनय के नाम पर सिर्फ बंदूक चलाई है। उन पर अभिमन्यु सिंह भारी पड़े हैं जिन्होंने बुक्का रेड्डी का रोल किया है। उन्हें फुटेज भी ज्यादा मिला है। आशीष विद्यार्थी, ज़रीना वहाब, दर्शन जरीवाला, शत्रुघ्न सिन्हा सहित सारे कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है।

कुल मिलाकर ‘रक्त चरित्र’ उन लोगों को पसंद आ सकती है, जो सिर्फ एक्शन पसंद करते हैं।

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