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सात खून माफ :‍ फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, विशाल भारद्वाज
निर्देशक व संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, नसीरुद्दीन शाह, जॉन अब्राहम, नील नितिन मुकेश, इरफान खान, अन्नू कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 20 मिनट
रेटिंग : 3/5

उन निर्माता-निर्देशकों को विशाल भारद्वाज से सबक लेना चाहिए जो अच्छी कहानियों के अभाव का रोना रोते रहते हैं। हमारे साहित्य में ढेर सारी उम्दा कहानियाँ मौजूद हैं। विशाल इनमें से ही एक को चुनते हैं और अपने टच के साथ स्क्रीन पर पेश करते हैं। इसलिए विशाल की फिल्मों के प्रति उत्सुकता रहती है कि वे क्या नया इस बार पेश करेंगे।

उनकी ताजा फिल्म ‘सात खून माफ’ रस्किन बांड द्वारा लिखी कहानी ‘सुजैन्स सेवन हस्बैंड्स’ पर आधारित है। सुजैन सात शादियाँ करती हैं और अपने आधा दर्जन पतियों को मौत के घाट उतार देती है।

कहानी का चयन उम्दा है क्योंकि प्यार, नफरत, सेक्स, लालच जैसे जीवन के कई रंग इसमें नजर आते हैं। इस कहानी को आधार बनाकर जो स्क्रीनप्ले लिखा गया है, उसमें थोड़ी कसर रह गई वरना एक बेहतरीन फिल्म देखने को मिलती।

सुजैन की किस्मत ही खराब थी क्योंकि हर बार बुरे आदमी से ही उसकी शादी होती है। कोई उसकी सेक्स के दौरान पिटाई करता था तो कोई उसे धोखा दे रहा था। एक लालच के कारण उसकी हत्या करना चाहता था तो दूसरा तानाशाह किस्म का था। किसी के लिए सुजैन महज ट्राफी वाइफ थी।

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इन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए सुजैन को उनकी हत्या का ही उपाय सूझता था। तलाक जैसे दूसरे रास्ते पर वह चलने के लिए तैयार नहीं थी। बचपन से ही वह ऐसी थी। स्कूल जाते समय एक कुत्ता उसे डराता था। स्कूल जाने का दूसरा रास्ता भी था, लेकिन बजाय उसने उस राह को चुनने के कुत्ते का भेजा उड़ाना पसंद किया।

‘सात खून माफ’ एक डार्क फिल्म है, जो सुजैन के नजरिये से दिखाई गई है। उसे सच्चे प्यार की तलाश है, जो उसे नहीं मिल पाता, इसके बावजूद उसका प्यार और शादी से विश्वास नहीं उठता। उसके सारे पति किसी और ही मकसद से उससे शादी करते हैं।

विशाल ने इस कहानी को बतौर निर्देशक अच्छी तरह से पेश किया है। उन्होंने हर कैरेक्टर को दिखाते समय छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखा है। बेहतरीन तरीके से शॉट्स फिल्माए हैं। रंगों का, लाइट और शेड का तथा लोकेशन्स का चयन उम्दा है। घटनाक्रम किस समय में घट रहा है, ये उन्होंने रेडियो और टीवी में आने वाले समाचारों के जरिये बताया है।

इसके बावजूद ‘सात खून माफ’ विशाल की पिछली फिल्मों ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के स्तर की नहीं है क्योंकि स्क्रिप्ट में कसावट नहीं है। कुछ ज्यादा ही संयोग इसमें नजर आते हैं। इरफान, जॉन और नसीर की हत्या करने के बाद सुजैन का बच निकलना हजम करना मुश्किल है। इतनी सारी रहस्यमय मौतों के बाद भी हर बार मामले की जाँच एक ही पुलिस ऑफिसर करता है। अंत में आग से सुजैन का बच निकलना भी थोड़ा फिल्मी हो गया है।

प्रियंका चोपड़ा को अपने करियर की सबसे उम्दा भूमिका मिली और उन्होंने अपनी ओर से बेहतरीन अभिनय भी किया है, लेकिन उनके अभिनय की सीमाएँ नजर आती हैं। वे और अच्छा कर सकती थीं या उनके जगह कोई और प्रतिभाशाली अभिनेत्री होती तो सुजैन के किरदार में और धार आ जाती। अधिक उम्र का दिखाने के लिए उनका जो मेकअप किया गया है वो बेहद बनावटी लगता है।

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नसीरुद्दीन शाह और इरफान के किरदार ठीक से नहीं लिखे गए इसलिए वे अपना असर छोड़ने में नाकामयाब रहे। नील नितिन मुकेश का किरदार तानाशाह किस्म का था इसलिए एक्टिंग को छोड़ उनका सारा ध्यान अकड़ के रहने में था। विवान शाह और हरीश खन्ना का अभिनय सराहनीय है। फिल्म का संगीत अच्छा है और ‘डार्लिंग’ गीत सबसे बेहतरीन है। संपादन में कसावट की जरूरत महसूस होती है।

कुल मिलाकर ‘सात खून माफ’ उन लोगों के लिए नहीं है, जो फिल्म में सिर्फ मनोरंजन के लिए जाते हैं। लीक से हटकर कुछ देखना यदि आप पसंद करते हैं तो इस फिल्म को देखा जा सकता है।

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