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देसी कट्टे : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें देसी कट्टे : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

, शुक्रवार, 26 सितम्बर 2014 (14:56 IST)
बॉलीवुड में हर सप्ताह 'कचरा' फिल्में भी रिलीज होती हैं। फिल्म समीक्षक इन्हें समीक्षा करने के लायक नहीं मानते हैं और अधिकांश लोग इनके बारे में जानने के इच्छुक भी नहीं होते। इन घटिया फिल्मों को तब थोड़ी-बहुत चर्चा मिलती है जब किसी शुक्रवार कोई बड़ी या बेहतर कलाकार/निर्देशक की कोई फिल्म रिलीज नहीं होती है। 
 
26 सितंबर वाला शुक्रवार कुछ ऐसा ही है। आधा दर्जन से ज्यादा फिल्में रिलीज हुई हैं और इनमें से ज्यादातर फिल्मों के नाम लोगों ने सुने भी नहीं होंगे। इनमें से एक है देसी कट्टे। इसे सी-ग्रेड फिल्म के चश्मे से भी देखे तो भी यह मजा नहीं देती। पूरी फिल्म बेहद उबाऊ है और इसे देखना किसी सजा से कम नहीं है।
 
देश भर में अवैध पिस्तौल कम दाम में उपलब्ध है, जिन्हें देसी कट्टा कहा जाता है। फिल्म की शुरुआत को देख लगता है कि इस देसी कट्टे के इर्दगिर्द यह फिल्म घूमेगी, लेकिन आरंभिक चंद रीलों के बाद यह फिल्म अपना रास्ता बदल लेती है। देसी कट्टे का रंग छोड़ इस पर दोस्ती, खेलकूद और बाहुबलियों के खूनी खेल का रंग चढ़ जाता है। यह सब कुछ इतने बचकाने और सतही तरीके से दिखाया गया है कि आप उस घड़ी को कोसने लगते हैं जब इस फिल्म को देखने का आपने निर्णय लिया था। निर्देशन कमजोर है या लेखन। अभिनय कमजोर है या संवाद। तय कर पाना मुश्किल है।
ज्ञानी (जय भानुशाली) और पाली (अखिल कपूर) बचपन के दोस्त हैं। अपराध की दुनिया में वे जज साहब (आशुतोष राणा) की तरह नाम कमाना चाहते हैं। देसी कट्टों का अवैध व्यापार करने वाले ये दोस्त निशानेबाजी में बेहद माहिर हैं। इन पर मेजर सूर्यकांत राठौर (सुनील शेट्टी) की नजर पड़ती है। मेजर किसी कारणवश पिस्टल चैम्पियनशिप जीतने का ख्वाब पूरा नहीं कर पाए। वे ज्ञानी और और पाली को प्रोशनल शूटर की कोचिंग देते हुए शूटिंग प्रतियोगिता के लिए तैयार करते हैं। इसी बीच जज साहब ज्ञानी और पाली को अपने पास बुलाते हैं। 
 
पाली अपराध की दुनिया में नाम कमाने का इसे स्वर्णिम अवसर मानते हुए जज साहब के लिए काम करने लगता है जबकि ज्ञानी खेल की दुनिया में प्रसिद्धी पाना चाहता है। दोनों की राहें जुदा हो जाती हैं। क्या ये दोस्त फिर एक होते हैं? क्या ज्ञानी शूटिंग स्पर्धा में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीत पाता है? अपराध की दुनिया में पाली का क्या होता है? इनका जवाब फिल्म का सार है। 
 
फिल्म की स्क्रिप्ट बेहद लचर है। इसमें ऐसे कई प्रसंग हैं जिनका कोई मतलब नहीं है। लेखक ने ट्वीस्ट देने की दृष्टि से इन्हें रखा है, लेकिन ये सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आए हैं। जैसे, ज्ञानी को उसके अतीत में अपराधी होने के कारण खेल प्रतियोगिता में भाग लेने से रोक दिया जाता है, लेकिन एक पुलिस ऑफिसर का अचानक हृदय परिवर्तन होता है और ज्ञानी प्रतियोगिता में भाग लेता है। यह बात पूरी तरह से अनावश्यक लगती है। ज्ञानी और पाली का शूटिंग खेल में हिस्सा लेने वाला पूरा ट्रेक निहायत ही घटिया है। इसे न अच्छा लिखा गया है और न ही फिल्माया गया है। 
 
लेखन और निर्देशन इतना रूटीन है कि अगले शॉट में क्या होने वाला है या कौन सा संवाद बोला जाएगा, इसका पता आसानी से लगाया जा सकता है। यदि पत्नी समुंदर किनारे अपने पति को शरमा कर बता रही है कि वह मां बनने वाली है तो समझा सकता है कि अगले शॉट में इसको गोली लगेगी। शराब पीकर एक दोस्त ज्यादा ही बहक रहा है या इमोशनल हो रहा है तो अंदाजा लगाने में देर नहीं लगती कि अब दो दोस्त लड़ने वाले हैं।  
 
फिल्म की कहानी ऐसी है कि हीरोइन की जगह नहीं बनती, फिर गानों के लिए उन्हें जगह दी गई है। फिल्म की एक हीरोइन एक बाहुबली से डरती है, लेकिन दूसरे अपराधी किस्म के लड़के को दिल देने में चंद सेकंड नहीं लगाती। 
 
फिल्म का निर्देशन आनंद कुमार ने किया है। उन्होंने कुछ शॉट अच्छे फिल्माए हैं, लेकिन कही-कही कल्पनाशीलता नजर नहीं आती। अभी भी वे भागते हुए बच्चों को दौड़ते हुए जवान हीरो के रूप में परिवर्तित होते दिखा रहे हैं जो सत्तर के दशक का फॉर्मूला हुआ करता था। जब निर्देशक को समझ में नहीं आया कि फिल्म को कैसे आगे बढ़ाया जाए तो गाने डाल दिए गए।  
 
जय भानुशाली ने भले ही दाढ़ी बढ़ाकर रफ-टफ लुक अपनाने की कोशिश की हो, लेकिन एक्शन रोल में उन्हें देखना हास्यास्पद लगता है। वे जब क्रोधित होते हैं तो उन्हें देख हंसी आती है। अखिल कपूर ने खूब कोशिश की है, लेकिन सार यही निकलता है कि उन्हें अभिनय सीखना होगा। सुनील शेट्टी ने अपने अभिनय से जम कर बोर किया है। उनको देख सुस्ती छाने लगती है। साशा आगा ने अभिनय के नाम पर चेहरे बनाए हैं जबकि टिया बाजपेयी औसत रही। आशुतोष राणा ही एकमात्र ऐसे अभिनेता रहे जिन्होंने दमखम दिखाया, हालांकि इस तरह के रोल वे न जाने कितनी बार कर चुके हैं। 
 
फिल्म का एक किरदार बार-बार कहता है कि 'हमार खोपड़िया सटक गई'। शायद उसने यह विश्लेषण पहले ही कर लिया था कि 'देसी कट्टे' देखने के बाद दर्शक यही बोलते नजर आएंगे। 
 
निर्माता-निर्देशक : आनंद कुमार
संगीत : कैलाश खेर
कलाकार : सुनील शेट्‍टी, जय भानुशाली, अखिल कपूर, साशा आगा, टिया बाजपेयी, आशुतोष राणा
रेटिंग : 1/5 

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