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रोर - टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें रोर - टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

, शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014 (15:37 IST)
वन्य जीवन पर बॉलीवुड में कम ही फिल्में बनी हैं। 'जंगल क्वीन' जैसे कई 'सी' ग्रेड प्रयास हुए हैं जिनमें जंगल की आड़ में सेक्सी सीन परोसे गए हैं। 'रोर : टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स' में कुछ अलग करने की कोशिश की गई है, लेकिन कमजोर निर्देशन और लेखन ने पूरा मामला बिगाड़ दिया। एक उबाऊ और दिशाहीन फिल्म बना दी गई है जो न रोचक है और न ही मनोरंजक।  
 
उदय नाम का एक फोटो जर्नलिस्‍ट सुंदरबन में एक शिकारी के जाल में फंसे सफेद बाघ के बच्‍चे को बचा लेता है और उसे गांव में स्‍थित अपने घर ले आता है। इस शावक को फॉरेस्ट वार्डन ले जाती है। अपने बच्‍चे की तलाश में मादा शावक उसकी गंध को सूंघते हुए उदय के घर तक आ जाती है और उदय को मार डालती है। उदय का भाई पंडित बाघिन से बदला लेना चाहता है। वह अपने निजी कमांडो की टीम लेकर सुंदरबन में उस बाघिन को खोजने निकलता है। 
 
फिल्म की कहानी कमल सदानाह और आबिस रिजवी ने लिखी है। इस कहानी पर फिल्म बनाने की हिम्मत किसी में नहीं थी, लिहाजा ये दोनों ही निर्माता और निर्देशक बन गए। एक छोटी सी बात को बेवजह लंबा खींचा गया है और कहानी में लॉजिक नाम की कोई चीज ही नहीं है। 
दुनिया में वैसे ही बाघों की संख्या लगातार कम हो रही है, लेकिन यह फिल्म बाघ को विलेन के रूप में प्रस्तुत करती है। पंडित फिल्म को फिल्म का हीरो बताया गया है, लेकिन दर्शक उससे कभी नहीं जुड़ पाते क्योंकि उसका काम विलेन जैसा है। वह उस बाघिन को मारना चाहता है जिसने उसके भाई को मारा है। फिल्म में इस बाघिन की कोई गलती नजर नहीं आती और दर्शक समझ ही नहीं पाते कि आखिर पंडित बदला लेने के लिए क्यों इतना बेसब्र हो रहा है। हद तो तब हो गई जब पंडित को बाघिन को मारने का अवसर मिलता है तो अचानक उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। पंडित के इरादे क्यों बदल जाते हैं इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई है और ढूंढने की कोशिश भी नहीं करना चाहिए। 
 
खुले हथियार लिए जंगल में एक दल घूमता रहता है, लेकिन उन्हें रोकने की कोई कोशिश नजर नहीं आती। फॉरेस्ट वॉर्डन का किरदार जरूर है, लेकिन नाममात्र के लिए। फिल्म में कई किरदार हैं, लेकिन उनका दर्शकों से परिचय करने की जहमत भी नहीं उठाई गई। लेखकों ने कामचलाऊ काम किया है और रिसर्च भी नहीं की है। 
 
निर्देशक के रूप में कमल सदानाह का काम स्तरीय नहीं है। वे खुद ही नहीं तय कर पाए कि क्या दिखाना चाहते हैं और उनका ये कन्फ्यूज पूरी फिल्म में नजर आता है। पूरी फिल्म दिशाहीन है। ऐसा लगता है कि जंगल में जाकर जो दिखा उसे शूट कर लिया और जोड़कर एक फिल्म तैयार कर दी। कहीं वे कमर्शियल फिल्म बनाने की कोशिश करते हैं तो कहीं पर फिल्म डॉक्यूमेंट्री लगने लगती है। ड्रामा मनोरंजनहीन है, इस वजह से परदे पर चल रहे घटनाक्रम बोरियत से भरे हैं। दो-तीन सीन छोड़ दिए जाए तो कहीं भी फिल्म रोमांचक नहीं लगती। 
 
अभिनेताओं की टीम ने भी फिल्म को घटिया बनाने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। सी ग्रेड कलाकारों की फौज जमा कर ली गई है। ऐसा लगता है कि जिम में तराशा गया शरीर ही कलाकारों के चयन का मापदंड हो। शब्दों के सही उच्चारण तक इन तथाकथित अभिनेताओं से नहीं हो रहे थे। फिल्म में दो महिला पात्र भी हैं जो जंगल में छोटी ड्रेसेस पहन कर घूमती रहती हैं।
 
फिल्म का वीएफएक्स अच्छा है, हालांकि उसका नकलीपन आंखों से छिप नहीं पाता। सिनेमाटोग्राफी उम्दा है। लेकिन केवल इसी वजह से फिल्म का टिकट नहीं खरीदा जा सकता है। बेहतर है कि रोर : टाइगर्स ऑफ सुंदरबन्स देखने के बजाय वाइल्ड लाइफ पर आधारित कोई टीवी कार्यक्रम देख लिया जाए।
 
निर्माता : आबिस रिज़वी
निर्देशक : कमल सदानाह
संगीत : रमोना एरिना
कलाकार : अभिनव शुक्ला, हिमर्षा वी, अंचित कौर, अली कुली, सुब्रत दत्ता
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट
रेटिंग : 1/5

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