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केवल बुद्धि ही सत्य है...

योगाचार का विज्ञानवाद

हमें फॉलो करें केवल बुद्धि ही सत्य है...

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

'चित्तैक जगत्सत्ता जगत्सत्तैव चित्तकम'
- अर्थात चित्त से ही जगत की सत्ता है और जगत की सत्ता चित्त है।

ND
जितना 'बोध' गहरा होगा उतना बुद्धि का विकास होगा। इस ज्ञान की उत्पत्ति भारत में हुई। इसका विकास चीन में हुआ और अमेरिका तथा चीन ने इस ज्ञान का भरपूर दोहन किया, ऐसा माना जा सकता है। ऐसा प्राचीनकाल से ही होता आया है कि भारत के कोहिनूरों को भारत में कभी सम्मान नहीं मिला।

योगाचार का विज्ञानवाद कहता है कि ईश्वर नहीं है, आत्मा भी नहीं है और यह जो दिखाई देने वाला जगत है वह बुद्धि द्वारा उत्पन्न भ्रम का जाल है। इसका यह मतलब कि भाग्यवाद और भगवान कोरी बकवास है जो जीवन के सत्य और यथार्थ से हमें अलग कर पर निर्भर बनाता है।

ईश्वर का होना या नहीं होना एक काल्पनिक ज्ञान है। आत्मा तो पाँचों इंद्रियों का संघात है। पाँचों इंद्रियों की उपस्थिति से जो ज्ञान प्रकट होता है उसे आत्मा मान लिया जाता है। बुद्धि का काल्पनिक और वास्तविक ज्ञान दोनों ही सिर्फ खेल मात्र है। असल में बुद्धि ही जानती है कि क्या है और क्या नहीं। बुद्धि का होना ही सत्य है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके दिमाग का स्मृति कोष दूसरे के दिमाग में फिट कर दिया जाए और दूसरे का आपमें तो आप दूसरे के माता-पिता को अपना माता-पिता मानने लगेंगे और दूसरे के अन्य सभी अनुभव आपके अनुभव हो जाएँगे। अर्थात आप पूर्णत: आप नहीं रहेंगे। यदि आप यह समझते हैं कि आत्मा का अदल-बदल तो हुआ नहीं फिर ऐसा कैसे हो सकता है तो इससे यही सिद्ध होता है कि ‍बुद्धि का खेल ही सत्य है।

मूलत: यह ज्ञान कि बुद्धि ही सत्य है- बौद्ध धर्म के क्षणिकवाद से उपजा ज्ञान है। योगाचार न तो बाहरी वस्तु को मानता है और न किसी स्थायी आत्मा को, वह तो केवल संज्ञानों (consciousness) के क्षणिक मात्र क्रम को मानता है।

बुद्धि का विषय बुद्धि ही है न कि कोई वस्तु। इसी प्रकार चेतना में ग्राह्म और ग्राहक का भेद नहीं है केवल बुद्धि ही सत्य है जो अपने प्रकाश से प्रकाशमान है। अर्थात बुद्धि स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की ओर इंगित नहीं करती जो उससे अलग हो। जैसे मिट्टी स्वयं को अनेक रूपों में व्यक्त करती है उसी प्रकार बुद्धि से ही यह समस्त संसार प्रकाशमान है।

'नाव्यsनुभाव्यों बुद्धयास्तितस्या नानुभवsपर:।
ग्राह्म ग्राहक वैधुर्य्यात स्वयं सैव प्रकाशत: इति।।'

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