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हीनयान और महायान

बौद्ध धर्म के दो पंख

हमें फॉलो करें हीनयान और महायान

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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भगवान बुद्ध के निर्वाण के मात्र 100 वर्ष बाद ही बौद्धों में मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे। वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया। अलग हुए इन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को 'महासांघिक' और जिन्होंने निकाला था उन्हें 'हीनसांघिक' नाम दिया जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप धारण कर किया।

सम्राट अशोक ने 249 ई.पू. में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन कराया जिसमें भगवान बुद्ध के वचनों को संकलित किया ‍गया। इस बौद्ध संगीति में पालि तिपिटक (त्रिपिटक) का संकलन हुआ। श्रीलंका में प्रथम शती ई.पू. में पालि तिपिटक को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया था। यही पालि तिपिटक अब सर्वाधिक प्राचीन तिपिटक के रूप में उपलब्ध है।

महायान के भिक्षु मानते थे हीनयान के दोषों और अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए बुद्ध द्वारा उपदेशित अद्वैतवाद की पुन: स्थापना की जानी चाहिए। अद्वैतवाद का संबंध वेद और उपनिषदों से है। महायान के सर्वाधिक प्रचीन उपलब्ध ग्रंथ 'महायान वैपुल्य सूत्र' है जिसमें प्रज्ञापारमिताएँ और सद्धर्मपुण्डरीक आदि अत्यंत प्राचीन हैं। इसमें 'शून्यवाद' का विस्तृत प्रतिपादन है।

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हीनयान को थेरवाद, स्थिरवाद भी कहते हैं। तृतीय संगीति के बाद से ही भारत में इस सम्प्रदाय का लोप होने लगा था। थेरवाद की जगह सर्वास्तित्ववाद या वैभाषिक सम्प्रदाय ने जोर पकड़ा जिसके ग्रंथ मूल संस्कृत में थे लेकिन वे अब लुप्त हो चुके हैं फिर भी चीनी भाषा में उक्त दर्शन के ग्रंथ सुरक्षित हैं। वैभाषिकों में कुछ मतभेद चले तो एक नई शाखा फूट पड़ी जिसे सौत्रान्तिक मत कहा जाने लगा।

हीनयान का दर्शन : हीनयान का आधार मार्ग आष्टांगिक है। वे जीवन को कष्टमय और क्षणभंगूर मानते हैं। इन कष्टों से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होगा क्योंकि आपकी सहायता करने के लिए न कोई ईश्वर है, न देवी और न ही कोई देवता। बुद्ध की उपासना करना भी हीनयान विरुद्ध कर्म है।

खुद मरे बगैर स्वर्ग नहीं मिलेगा इसीलिए जंगल में तपस्या करो। जीवन के हर मोर्चे पर पराक्रम करो। पूजा, पाठ, ज्योतिष और प्रार्थना सब व्यर्थ है, यह सिर्फ सुख का भ्रम पैदा करते हैं और दिमाग को दुविधा में डालते हैं। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं को ही प्रयास करना होगा।

हीनयान कई मतों में विभाजित था। माना जाता है कि इसके कुल अट्ठारह मत थे जिनमें से प्रमुख तीन हैं- थेरवाद (‍स्थविरवाद), सर्वास्तित्ववाद (वैभाषिक) और सौतांत्रिक।

हीनयान के सिद्धांतों के अनुसार बुद्ध एक महापुरुष थे। उन्होंने अपने प्रयत्नों से निर्वाण प्राप्त कर निर्वाण प्राप्ति का उपदेश दिया। हीनयान अनीश्वरवादी और कर्मप्रधान दर्शन है। भाग्यवाद जीवन का दुश्मन है।

महायान : महायान ने बुद्ध को ईश्वरतुल्य माना। सभी प्राणी बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं। दुःख है तो बहुत ही सहज तरीके से उनसे छुटकारा पाया जा सकता है। पूजा-पाठ भले ही न करें लेकिन प्रार्थना में शक्ति है और सामूहिक रूप से ‍की गई प्रार्थना से कष्ट दूर होते हैं।

आत्मा को सभी कष्टों से छुटकारा पाकर जन्म-मरण के चक्र से बाहर निकलना है तो बुद्ध द्वारा निर्वाण प्राप्ति के जो साधन बताए गए हैं उन्हें अनुशासनबद्ध होकर करें।

महायान भी कई मतों में विभाजित है। महायान अष्वघोष के ग्रंथों और नागार्जुन के माध्यमिक और असंग के योगाचार्य के रूप में महायान के विकसित रूप की स्थापना हुई।

महायान एक विशाल यान अर्थात जलपोत के समान है, जिसमें कई लोग बैठकर संसार सागर को पार कर सकते हैं, इसीलिए वे सर्वमुक्ति की बात करते हैं। बुद्ध को भगवान मानते हैं और उनके कई अवतारों के होने की घोषणा भी करते हैं।

महायानियों ने ही संसारभर में बुद्ध की मूर्ति और प्रार्थना के लिए स्तूपों का निर्माण किया। यूनानी, ईसाई, पारसी और अन्य धर्मानुयायी महायानियों की प्रार्थना पद्धति, स्तूप रचना, संघ व्यवस्था, रहन-सहन और पहनावे से प्रभावित थे। उन्होंने महायानियों की तरह ही उक्त सभी व्यवस्थाओं की स्थापना की।

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