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क्या वास्तविकता के करीब होगा 2017-18 का आम बजट?

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, शनिवार, 28 जनवरी 2017 (15:07 IST)
देश की समूची अर्थव्यवस्था के मुश्किल दौर में होने (हालांकि सरकार और वित्तमंत्री ऐसा नहीं मानते हैं) के बावजूद क्या वित्तमंत्री और सरकार उन खामियों को देख सकेगी जिनके चारों तरफ से घिरे  होने के बावजूद बजट मात्र आंकड़ों की बाजीगरी बनकर रह सकती है। क्या सरकार ने इस बात का  सटीक अनुमान लगा लिया है कि उसका वित्तीय घाटा कितना है? क्या उसने इन तथ्यों की गणना  कर ली है कि सरकार वित्तीय घाटे को बढ़ने से रोकने के लिए क्या कदम उठा सकती है? सरकार के पास इस बात के आंकड़े हैं कि उसकी जेब में कितना पैसा है और नोटबंदी के बावजूद क्या अर्थव्यवस्था में अभी भी कहीं काला धन बचा हुआ है? 
 
सरकार और उसके विद्वान अर्थशास्त्री शायद इस बात को कभी स्वीकार नहीं करना चाहेंगे कि नोटबंदी का उनका फैसला गलत था और इसका जिस तरह से क्रियान्वयन किया गया है, उसने सरकार की निर्णयों को क्रियान्वित करने की क्षमता पर गंभीर सवाल उठाए हैं, लेकिन सरकार को समूचे देश के  ग्रामीण क्षेत्रों में मंदी की हालत नहीं दिखाई देती है। समूची अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता का वातावरण है और सरकार को भी पता नहीं है कि यह हालत कब तक जारी रहेगी? इसका असर कितना दूरगामी होगा?  
 
सरकार ने बजट तो बना लिया लेकिन पता नहीं है कि उसे देश की जीडीपी के आकार के बारे में सही-सही अनुमान था? क्या सरकार के राजस्व प्राप्ति के अनुमान वास्तविकताओं पर आधारित हैं? 
 
सरकार ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें हासिल किया भी जा सकता है या नहीं? अगर सरकार को  यही नहीं पता है कि उसका वित्तीय घाटा कितना है और इसे किस सीमा तक पूरा किया जा सकता है, तो फिर सरकार को कैसे जानकारी होगी कि वह किस मद (हैड) में कितना पैसा खर्च कर सकती है और यह पैसा कैसा एकत्र किया जाएगा?  
 
लेकिन, मोदी सरकार के वित्तमंत्री और उ‍नके नीति आयोग के विद्वानों को नोटबंदी के विपरीत असर का अंदाजा है? सरकारी बयानों, योजनाओं से ऐसा आभास होता है कि सरकार वित्तीय घाटे को कम  करना चाहती है, लेकिन इसके लिए सरकार किस तरह अपने खर्चों पर लगाम लगा सकती है? सरकार सामाजिक क्षेत्रों और गरीबी को कम करने संबंधी योजनाओं के खर्च में कटौती करके ही क्या बैंकों के एनपीए को पूरा करना चाहती है? ऐसी स्थिति में यह तय है कि बजट में तय अनुमान सही-सही वास्तविक स्थितियों पर आधारित नहीं होंगे क्योंकि सरकार को नोटबंदी के नकारात्मक परिणाम दिखाई ही नहीं दे रहे हैं। ऐसे में अगर बजट गलत धारणाएं और सोच पर आधारित होंगे  जोकि भविष्य में और नई-नई समस्याओं को जन्म देगी।  
 
देश की आर्थिक स्थिति को लेकर क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का देश की रेटिंग को नीचे गिरा देना इस बात को समझा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए क्या कदम उठाएगी? क्या सरकार  सामाजिक क्षेत्रों के लक्ष्यों की लागत को वहन करने की हालत में है? क्या इस हालत में सरकार कैपिटल एक्सपेंडीचर (पूंजीगत खर्चों) में कटौती के लिए विवश नहीं होगी? क्या इससे अर्थव्यवस्था  मंदी के दौर में गहरे तक नहीं जाएगी? 
 
बजट में अगर अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात को सही तरह से नहीं समझा गया तो नोटबंदी की समस्याएं कई गुना बढ़ जाएंगी। हम इस बात का अंदाजा सही तरीके से नहीं लगा सकेंगे कि अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कैसा हो सकता है। बजट पूरे साल भर के लिए होता है और इसे अर्थव्यवस्था के मौजूदा प्रदर्शन के अनुसार बनाया जाता है, लेकिन क्या हमें पता है कि वर्ष 2016 -17 के दौरान प्रदर्शन कैसा रहा है? ज्यादा से ज्यादा हमारे पास इस आशय के आंकड़े  हो सकते हैं कि 8 नवंबर तक देश की अर्थव्यवस्था कैसी रही है? लेकिन इसके बाद नोटबंदी और इसके परिणाम संबंधी आंकड़े हैं तो कैसे हैं? इसके आधार पर मौजूदा वित्तीय वर्ष में क्या अनुमानित लक्ष्य तय किए जा सकते हैं? बजट को तय समय से एक महीने पहले पेश किया जा रहा है, इसका सीधा-सा अर्थ है कि हमारे पास समूचे और पूरी तरह से सही आंकड़े भी नहीं होंगे।
 
इकोनॉमी के 8 नवंबर के पहले जैसी स्थिति में पहुंचने में लंबा वक्त लग सकता है क्योंकि इनवेस्टमेंट में गिरावट आई है। हमारे पास पहले से पूरे आंकड़े नहीं हैं, ऐसी हालत में क्या नोटबंदी के बाद दिसंबर तक के दो महीनों के आंकड़े रेवेन्यू प्रोजेक्शन के लिए पर्याप्त होंगे? ऐसे में बजटीय प्रावधानों में क्या बड़ी गड़बड़ियां नहीं दिखाई देंगी? बजट में अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद  समस्याओं का हल निकालना होगा और अर्थव्यवस्था को एक दिशा देने की कोशिश करनी होगी। 
 
सरकार को उम्मीद थी कि उसे कालेधन के खुलासे से अतिरिक्त फंड मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है वरन असलियत यह है कि कालाधन रखने वाले ज्यादातर लोगों ने अपना पैसा नई करेंसी में बदल लिया है। सरकार ने पहले ही लोगों के बैंक खातों में जो पैसा था, उसे कालाधन कहकर जब्त कर लिया, लेकिन जिनके पास काला धन था, वे इसे बचाए रखने में सफल रहे हैं। इसके बाद छोटे बचत खातों में जमा राशि को फिर से कालाधन मान लेना उचित नहीं कहा जा सकता है।  
 
आलोच्य वर्ष में उत्पादन और प्रॉफिट प्रभावित हुआ है और रेगुलर टैक्स कलेक्शन में गिरावट आना लगभग तय है, लेकिन सरकार का दावा है कि मौजूदा फिस्कल ईयर के शुरुआती 7 महीनों में करों में बड़ा इजाफा हुआ है। अगर यह मान भी लिया जाए कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में इजाफा हुआ है पर क्या यह बढ़ोतरी आगे भी जारी रहेगी? यह मानना बड़ी भूल होगी कि चूंकि टैक्स कलेक्शन में बढ़ोतरी हुई है, ऐसे में यह आगे भी बढ़ेगा। हमें यह समझना होगा कि नोटबंदी के पहले के और बाद  के हालात में बड़ा फर्क है, इसलिए टैक्स कलेक्शन में कभी होने की आशंका है।
 
देश के असंगठित सेक्टर पर नोटबंदी की सबसे बड़ी चोट पहुंची है और इस सेक्टर पर देश की 40 फीसदी अर्थव्यवस्था निर्भर है। नोटबंदी की सबसे बड़ी चोट असंगठित सेक्टर पर ही पड़ी है लेकिन इसके बाद भी हम इसकी कारोबारी संभावनाओं में बड़ी गिरावट देखने को तैयार नहीं हैं, क्यों? ऐसे में क्या सरकार अपने लोकलुभावन वादों को पूरा करने में सक्षम होगी? 
 
पहले सरकारें ऐसा करती रही हैं कि बजट में उन्होंने ज्यादा खर्चे दिखाए और बाद में वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए खर्चों में कटौती करती रही हैं। यूपीए के दूसरे शासनकाल में 5 साल के दौरान करीब 6.5 लाख करोड़ रुपए के खर्च की कटौती कर दी गई। नोटबंदी के अलावा, 5 राज्यों में चुनावों के दौर में एक बड़ा सवाल यह है कि नोटबंदी के बाद के हालात में सरकार अपने वादों को पूरा करने के लिए संसाधन कहां से जुटाएगी? या ये सिर्फ वादे ही रहेंगे जो कभी पूरे नहीं होंगे?
 
विदेशी पूंजी के बाहर जाने की चिंता : बजट बनाने वालों के सामने एक बड़ी बाहरी अनिश्चितता बनी हुई है। विदेशी पूंजी के देश से बाहर जाने और अमेरिका में ब्याज दरों के बढ़ने के डर से बाहरी सेक्टरों में अनिश्चितता बनी हुई है।
 
ऐसे में बाहरी सेक्टरों को भी संभालना होगा जो कि आसान नहीं होगा है। सरकारी मोर्चे पर प्रत्यक्ष करों में बड़े सुधार की जरूरत है लेकिन सरकार इन्हें कैसे लागू करेगी? जीएसटी के लागू होने में कई दिक्कतें सामने आएंगी और राज्यों को भी टैक्स कलेक्शन को लेकर मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। इस साल का बजट कई आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना कर रहा है और ऐसे में अगर समस्याओं पर सही तरीके काबू नहीं पाया गया तो हमें नोटबंदी के दुष्प्रभावों की अनदेखा करने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। 

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