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शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना

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शास्त्रों में 'शक्ति' शब्द के प्रसंगानुसार अलग-अलग अर्थ किए गए हैं। तांत्रिक लोग इसी को पराशक्ति कहते हैं और इसी को विज्ञानानंदघन ब्रह्म मानते हैं। वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण आदि में भी 'शक्ति' शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूलप्रकृति आदि नामों से निर्गुण ब्रह्म एवं सगुण ब्रह्म के लिए भी किया गया है।

विज्ञानानंदघन ब्रह्मा तत्व अति सूक्ष्म एवं गुह्य होने के कारण शास्त्रों में उसे नाना प्रकार से समझाने की चेष्टा की गई है। इसलिए 'शक्ति' नाम से ब्रह्म की उपासना करने से भी परमात्मा की ही प्राप्ति होती है। एक ही परमात्मा तत्व की निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार, देव, देवी, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, राम, कृष्ण आदि अनेक नामरूप से भक्त लोग उपासना करते हैं। रहस्य को जानकर शास्त्र और आचार्यों के बताए हुए मार्ग के अनुसार उपासना करने वाले सभी भक्तों को उसकी प्राप्ति हो सकती है।

उस दयासागर प्रेममय सगुण निर्गुण रूप परमेश्वर को सर्वोपरि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्‌, सर्वव्यापी, संपूर्ण गुणाधार, निर्विकार, नित्य, विज्ञानानंदघन परब्रह्म परमात्मा समझकर श्रद्धापूर्वक निष्काम प्रेम से उपासना करना ही उसके रहस्य को जानकर उपासना करना है, इसलिए श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उस विज्ञानानंदस्वरूपा महाशक्ति भगवती देवी की उपासना करनी चाहिए। यह निर्गुण स्वरूपा देवी जीवों पर दया करके स्वयं ही सगुणभाव को प्राप्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप से उत्पत्ति, पालन और संहार कार्य करती हैं। स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णजी कहते हैं-

त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी।
त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका॥

कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्‌।
परब्रह्मास्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी॥

तेजःस्वरूपा परमा भक्तानुग्रहविग्रहा।
सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्पर॥

सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया।
सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगला॥।

तुम्हीं विश्वजननी मूल प्रकृति ईश्वरी हो, तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आद्याशक्ति के रूप में विराजमान रहती हो और स्वेच्छा से त्रिगुणात्मिका बन जाती हो। यद्यपि वस्तुतः तुम स्वयं निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुण हो जाती हो। तुम परब्रह्मस्वरूप, सत्य, नित्य एवं सनातनी हो। परम तेजस्वरूप और भक्तों पर अनुग्रह करने हेतु शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधार एवं परात्पर हो। तुम सर्वाबीजस्वरूप, सर्वपूज्या एवं आश्रयरहित हो। तुम सर्वज्ञ, सर्वप्रकार से मंगल करने वाली एवं सर्व मंगलों की भी मंगल हो।

उस ब्रह्म रूप चेतन शक्ति के दो स्वरूप हैं- एक निर्गुण और दूसरा सगुण। सगुण के भी दो भेद हैं- एक निराकार और दूसरा साकार। इसी से सारे संसार की उत्पत्ति होती है। उपनिषदों में इसी को पराशक्ति के नाम से कहा गया है।

तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्‌। विष्णुरजीजनत्‌। रुद्रोऽजीजनत्‌। सर्वे मरुद्गणा अजीजनन्‌। किन्नरा वादिन्नवादिनः समंता दजीजनन्‌। भोग्यमजीजनत्‌। गन्धर्वाप्सरसः सर्वमजीजनत्‌। सर्व शाक्तमजीजनत्‌। अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जं जरायुजं यत्किंचैतत्प्राणि स्थावरजंगमं मनुष्यमजीजनत्‌। सैषा पराशक्तिः।

उस पराशक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र उत्पन्न हुए। उसी से सब मरुद्गण, गंधर्व, अप्सराएं और बाजा बजाने वाले किन्नर सब ओर से उत्पन्न हुए। समस्त भोग्य पदार्थ और अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज जो कुछ भी स्थावर, जंगम मनुष्यादि प्राणीमात्र उसी पराशक्ति से उत्पन्न हुए (ऐसी यह पराशक्ति है)।

ऋग्वेद में भगवती कहती हैं-

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्य हमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा॥

अर्थात 'मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्वेदेवों के रूप में विचरती हूं। वैसे ही मित्र, वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्विनीकुमारों के रूप को धारण करती हूं।'

ब्रह्मसूत्र में भी कहा है- 'सर्वोपेता तद्दर्शनात्‌' 'वह पराशक्ति सर्वसामर्थ्य से युक्त है क्योंकि यह प्रत्यक्ष देखा जाता है।'

यहां भी ब्रह्म का वाचक स्त्रीलिंग शब्द आया है। ब्रह्म की व्याख्या शास्त्रों में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग आदि सभी लिंगों में की गई है। इसलिए महाशक्ति के नाम से भी ब्रह्म की उपासना की जा सकती है। बंगाल में श्रीरामकृष्ण परमहंस ने मां, भगवती, शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना की थी।

वे परमेश्वर को मां, तारा, काली आदि नामों से पुकारा करते थे और भी बहुत से महात्मा पुरुषों ने स्त्रीवाचक नामों से विज्ञानानंदघन परमात्मा की उपासना की है। ब्रह्म की महाशक्ति के रूप में श्रद्धा, प्रेम और निष्काम भाव से उपासना करने से परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

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