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सिर्फ रस्म अदायगी है बाल दिवस!

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-कृष्णकांत
 
जवाहरलाल नेहरू बच्चों के चाचा नेहरू थे और वे बच्चों की चमकीली आंखों में भारत का उज्जवल भविष्य देखते थे। बच्चों के नाम पर नेहरूजी के जन्मदिन को बाल दिवस कहा गया।

आज नेहरूजी होते तो अपनी वृद्ध सपनीली आंखों से देखते कि जिन सपनों की वे बात करते थे, आज वे कहीं नहीं बचे है। राजनीति से 'सेवा' शब्द गायब हो चुका है। क्या कोई ऐसा क्षेत्र बचा है जहाँ कोई बड़ा घोटाला नहीं हुआ हो? ऐसे में इस वर्ष बच्चों से क्या कहें? वे इस बाल दिवस पर क्या सीखें?

वे किससे प्रेरणा लें? वे क्यों सच बोलें? वे क्यों किसी ऊंचे आदर्श पर यकीन करें? जबकि वे हर रोज देखते हैं कि जो उन्हें जिस आदर्श पर चलने की प्रेरणा देता है दरअसल वह उसी वक्त, एन उन्हीं के सामने उस आदर्श की हत्या कर रहा होता है। भ्रष्टाचार, झूठ और फरेब में स्वयं लिप्त रहकर आखिर हम उससे बच्चों को बचाने की बात कैसे कर सकते हैं। आखिर इस ढोल को पीटने से क्या होगा कि बच्चे संस्कारविहीन हो रहे हैं?

आखिर किसे चिंता है कि इस देश के बच्चों का भविष्य क्या हो? उनकी शिक्षा की व्यवस्था कैसी हो? उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं कैसे मिलें? कैसे उनके माता-पिता के रोजगार और आय के साधन बढ़ाए जाएं जिससे किसी भी बच्चे को बाल-मजदूर न बनना पड़े।

किसी बच्चे को खुले आसमान के नीचे न सोना पड़े। हमारी लाचारी, हमारी बदहाली के लिए हो सकता है हमारी जनसंख्या जिम्मेदार हो, मगर वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो सुनहरे सपने तो दिखाते हैं लेकिन चिकनी चुपड़ी खुद हजम करते हैं। 

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि बच्चों पर इसलिए कोई ध्यान नहीं देता है कि वे वोट बैंक नहीं है। लेकिन आज नहीं तो कल बच्चों पर तो ध्यान देना ही होगा। जो भी योजनाएं बनती हैं उनका कितना प्रतिशत बच्चों तक सचमुच पहुंचा? क्या कभी किसी ने यह पता किया है?

एक सरकार आती है, वह दसवीं तक के बच्चों को किताबें-कापी देने की घोषणा करती हैं, दूसरी उस घोषणा को रद्दी की टोकरी में डाल देती है। एक दिन बच्चों को दोपहर का पौष्टिक भोजन देने की घोषणा की जाती है, दूसरे दिन उसे खारिज कर दिया जाता है।

ऐसे में हर साल चाहे बाल-दिवस आए चाहे उस पर कितनी भी बड़ी-बड़ी उद्घोषणाएं हो, बच्चों का कोई भला नहीं होने वाला। आखिर ऐसी नीतियां क्यों नहीं बनाई जाती कि सरकार किसी पार्टी की आए, बच्चों के लिए पहले से चल रही कल्याणकारी योजनाओं पर कोई असर न पड़े नहीं तो बाल दिवस सिर्फ एक रस्म अदायगी भर रह सकता है।


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