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क्या है चीन की भारत नीति?

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चीन को लेकर भारत की समस्या यह है कि इसने चीन को लेकर सदैव ही 'कोल्ड पीस' (निष्क्रियता ओढ़कर शांति बनाए रखने की नीति) अपना रखी है। जब तक भारत अपनी स्थिति को देखते हुए मुखर और आक्रामक नहीं होता है तब तक यह टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी जमीन को चीन के हिस्से में जाते देखते रहने के लिए विवश बना रहेगा।

एक ओर चीन जहां सीमावर्ती और विवादित क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं और संरचनाओं का जाल बिछा रहा है वहीं भारत की इस मोर्चे पर अगर कोई तैयारी है तो यह ठोस और त्वरित नहीं है। चीन ने जहां तिब्बत को छिंगहाई से जोड़ने वाला रेल मार्ग बना लिया है जोकि तिब्बत को शेष चीन के साथ जोड़ता है। यह 1985 किमी लम्बा रेलमार्ग न केवल सीमावर्ती इलाकों में रहने के लिए नई सुविधाएं पैदा करेगा वरन यह चीन के लिए सामरिक महत्व का महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह रेलमार्ग भारत, नेपाल और भूटान की सीमाओं के बहुत करीब है। चीन ने तांगुला रेलवे स्टेशन का निर्माण किया है जो कि 5068 मीटर की दूरी पर स्थित है। यह दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे स्टेशन है और इसका अपना सामरिक महत्व है। चीन अब अपने कब्जे वाले तिब्बत के भूभाग को पाक अधिकृत कश्मीर से भी जोड़ने में लगा हुआ है। स्पष्ट है कि चीन भारत को घेरने की रणनीति अपना रहा है।

पर जहां तक भारत की बात है तो इसने पिछले करीब एक वर्ष से देश की सरकार ने चीन के साथ लगी हिमालयन सीमा की स्थिति को ही एक ढक्कन से बंद कर दिया है। इससे पहले चीन की सीमावर्ती क्षेत्रों में सेना की घुसपैठ के समाचार आते रहे हैं, लेकिन सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों ने एक नीति बना रखी है कि वे मीडिया को इस मामले में जानकारी देना ही उचित नहीं समझते हैं। जहां चीन की भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ की बात है तो यह कम नहीं हुई है, वरन बढ़ी ही है लेकिन भारतीय मीडिया संगठनों को बहुत थोड़ी जानकारी ही मिलती है, जिसकी रिपोर्ट वे दे सकें।

यह बात पेइचिंग के भी हित में है और भारत ने अपने ही मीडिया को जिस तरह से रोक रखा है, उससे चीन का खुश होना स्वाभाविक है। इस स्थिति का संदेश यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी तानाशाही व्यवस्‍था विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दबाव बढ़ाती है तो भारत जैसा देश भी प्रतिकार नहीं कर पाता। भूटान में अपनी घुसपैठ को चीनी कहते रहे हैं कि उनके सैनिक 'रास्ता भूलकर' भूटान में चले गए। इसी तरह पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिक भारत सीमा में जब-तब रास्ता भूलकर आ जाते हैं। विदित हो कि वर्ष 2008 में ही सरकारी आंकड़ों के अनुसार चीनी सैनिकों ने 270 बार घुसपैठ की थी।
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इसके बाद भारत सरकार ने घुसपैठ का वार्षिक हिसाब रखने की जरूरत नहीं समझी। वर्ष 2008 में ही पीएलए के सैनिकों की 'आक्रामक सीमा पेट्रोलिंग' के 2285 मामले सामने आए थे। आक्रामक पेट्रोलिंग और घुसपैठ का यह सिलसिला और इसकी बानगी अभी तक बनी हुई है। लगातार बढ़ता सीमावर्ती तनाव इस बात का प्रतीक है कि भारत और चीन के बीच सामरिक विसं‍गति इस हद तक बढ़ गई है कि यह विकास के दो राजनीतिक और सामाजिक मॉडलों का सीधा टकराव लगता है। हिमालय के क्षेत्र में उपजे इस तनाव का सबसे बड़ा केन्द्र बिंदु ‍‍तिब्बत है। चीन ने इसके साथ अरुणाचल पर अपना पुराना प्रसुप्त दावा भी जोड़ रखा है। यह इलाका ताइवान से करीब तीन गुना ज्यादा बड़ा है और इस कारण से चीन, भारत के साथ अपनी 4057 किमी लम्बी सीमा पर सैन्य दबाव बराबर बनाए रखता है।

तिब्बत में इसके शासन के खिलाफ ‍विरोध तेज होने के साथ ही पेइचिंग ने वर्तमान तिब्बत को अपनी प्रभुसत्ता का प्रमुख मुद्दा बना रखा है। तिब्बत चीन की सामरिक तैयारी का एक नया अत्याधुनिक केन्द्र भी बन गया है। यहां पांच पूरी तरह से ऑपरेशनल एयर बेस, बहुत सारे हेलीपैड्‍स, विस्तृत रेल नेटवर्क, सीमा पर 30 डिवीजनें तैनात कर रखी हैं। विदित हो कि एक डिवीजन में करीब 15 हजार सैनिक होते हैं। इस दृष्टि भारत के मुकाबले चीन की तैयारी तीन गुनी ज्यादा है।

ताइवान की तरह से तिब्बत भी चीन की विदेश नीति में बहुत महत्व रखता है। लेकिन अरुणाचल मुद्दे को उठाकर पेइचिंग इस मुद्दे को भी तिब्बत की तरह बनाने की कोशिश कर रहा है। इसलिए उसका मानना है कि अरुणाचल नया ताइवान है जिसे चीनी गणराज्य में शामिल होना चाहिए। वास्तव में चीन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भारत का पड़ोसी नहीं बना है वरन इसने 1951 में तिब्बत को हथियाकर या बंदूकों की मदद से भारत का पड़ोसी बनने का गौरव हासिल किया है।

जो कोई भी पश्चिमी देश दलाई लामा को अपने यहां बुलाता है, उसके साथ राजनयिक तौर पर विरोध दर्ज करने का कोई मौका नहीं छोड़ता लेकिन उसके लिए दुख की बात यह है कि वही दलाई लामा भारत में रहते हैं और उनकी निर्वासित सरकार भी भारत में रहती है। चीन की उग्रता को बढ़ाने में भारत-अमेरिकी संबंधों ने भी आग में घी डालने का काम किया है। वर्ष 2005 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अपने विदाई भाषण में कहा था कि 'हमने भारत के साथ एक नई ऐतिहासिक और सामरिक साझेदारी की नींव रखी' जैसे बयान को चीन अब तक हजम नहीं कर पाया है।

इसके बाद से सरकारी चीनी मीडिया माओ युग के भारत विरोधी मानसिकता वाले भारत विरोधी भाषणों को दोहराने में लगा है। कभी वह कहता है कि भारत को 1962 के युद्ध से सबक लेना चाहिए तो कभी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेली में भारत पर आरोप लगाया जाता है कि यह दूर के देशों (अमेरिका) से तो दोस्ती करता है, लेकिन पास के देश (चीन) पर हमले करता है। चीन की पीएलए का थिंक टैंक, चाइना इंस्टीट्‍यूट ऑफ इंटरनेशनल स्ट्रेटिजिक स्टडीज, तर्क करता है कि भारत स्थिति को समझने में वैसी गलती ना करे जो उसने 1962 में की थी।

इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर भारत के हित सीमा की स्थिति को लेकर तभी बेहतर होंगे जब हम तथ्यों को चीन के बारे में खुद बोलने देंगे। और इस मामले में तथ्य यह हैं कि हाल के वर्षों में चीन ने भारत के खिलाफ समूचे हिमालय में प्रेशर पाइंट्स (दबाव डालने के बिंदु) खोल रखे हैं। भारत की चीन से लगी सीमा के चारों क्षेत्रों में इस तरह घटनाएं जान बूझकर की जाती हैं। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि 2001 में उत्तराखंड के साथ लगती सीमा को नक्शों की अदला बदली के साथ स्पष्ट कर दिया गया था लेकिन इस क्षेत्र में भी चीन घुसपैठ करने से बाज नहीं आता। इसी तरह सिक्किम की तिब्बत से लगा करीब 206 किमी की सीमा विवादित नहीं है और इसे चीन भी मान्यता देता है लेकिन इसके बावजूद इस इलाके में घुसपैठ होती रहती है।


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पर इस पर भारतीय अधिकारियों का मासूम जवाब होता है कि ये घटनाएं इसलिए होती हैं क्योंकि सच्ची सीमा रेखा (लाइन ऑफ ट्रुथ) को लेकर भी दोनों पक्षों के बीच विरोधाभासी समझ है। इस तरह की समझ का अंतर अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के मामलों में तो समझ में आता है, लेकिन क्या यह बात सिक्किम और उत्तराखंड के बारे में सही हो सकती है? इस तरह की घुसपैठों को लेकर चीन ने कभी कोई बहाना नहीं बनाया या इस बारे में कोई सफाई नहीं दी। कारण? भारत को चीन की धौंस या दादागीरी को कम करके समझने की आदत पड़ गई है और चीन इस बात को अच्छी तरह से समझता है कि भारत उसके साथ युद्ध करने जैसा जोखिम मोल लेना कभी नहीं चाहेगा।

वर्ष 1962 से पूर्व की स्थिति में भी सीमा पर चीन के आक्रामक कदमों को महत्व न देने की नीति अपनाई गई थी। इसका नतीजा वही निकला जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 'पीठ में छुरा घोंपना' बताया था। वास्तव में आज 1962 से पूर्व की स्थिति और वर्तमान में महत्वपूर्ण समानताएं हैं। सीमा विवादों को लेकर वार्ताएं घटती जा रही हैं और भारतीय जमीन पर चीन का दावा सार्वजनिक रूप से अधिक उग्र होने लगा है। चीन की सीमावर्ती घुसपैठों की संख्या बढ़ रही है और भारत की चीन नीति शक्तिहीन और असहाय होती जा रही है। वास्तव में, भारत-चीन विवादों के इतिहास में यह बात हमेशा ही सामने रही है कि भारत हमेशा ही चीन के खिलाफ रक्षात्मक रहा है।

यह स्थिति एक ऐसे देश के खिलाफ है जिसने दक्षिण में अपनी सीमा को बढ़ाते हुई सैकड़ों मील की सीमा को हड़प लिया और इसके बाद भारत के ‍खिलाफ सीधी लड़ाई करने की बजाय भारतीय जमीन को धीरे-धीरे करके हथियाता जा रहा है। और अब यह भारत की बाकी बची जमीन पर भी अपना दावा करता है। तिब्बत जैसे स्नायु शूल के ठीक विपरीत पेइचिंग की भारत को लेकर भाषा भी हमेशा ‍अशिष्ट और कठोरतापूर्ण रही है। एक समय चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई के शब्द थे कि 'भारत को सबक सिखा दो।'

इस स्थिति की विडम्बना यह है कि चीन, तिब्बत के साथ अपने कथित तौर पर संबंधों को लेकर भारत की भूमि पर दावा करता है और तिब्बत कार्ड को भारत के खिलाफ खेलता है। वह इस सीमा तक कहता है कि तवांग में उसके एक पूर्व दलाई लामा का जन्म हुआ था, जबकि दलाई लामा जैसी राजनीतिक-धार्मिक संस्था को उसने एक योजनाबद्ध तरीके से नष्ट किया है। लेकिन इसके बाद भी भारत को चीन के खिलाफ तिब्बत कार्ड चलने में शर्म आती है। तिब्बत को एक सौदेबाजी का जरिया ना बनाकर भारत ने यह गलती की है कि पहले उसने अक्साई चिन खोया, बाद में 1962 में और जमीन खोई और अब किसी तरह से चीनी दावों से अरुणाचल को बचाने की कोशिश कर रहा है।

जबकि, पेइचिंग खुले आम अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का एक हिस्सा और इसका सांस्कृतिक विस्तार होने का दावा करता है। यह धीरे-धीरे कर टुकड़ों में जमीन हथियाने की चाल है। मात्र इसलिए कि अरुणाचल के तवांग जिले में 17वीं सदी में छठवें दलाई लामा का जन्म हुआ था चीन अरुणाचल पर अपना दावा करता है। जबकि इसी तर्क के सहारे वह मंगोलिया पर भी दावा कर सकता है कि उसके चौथे दलाई लामा 1589 में वहां पैदा हुए थे। वास्तव में तिब्बत और मंगोलिया के बीच परम्परागत तौर पर धार्मिक संबंध, अरुणाचल और तिब्बत के संबंधों से अधिक प्रगाढ़ रहे हैं।

चीन का दावा इस दृष्टि से भी अपुष्ट है और इसने गोलमाल करके तिब्बत को सातवें, 10वें, 11वें और वर्तमान दलाई लामा (जोकि इस लाइन के 14वें दलाई लामा हैं) के जन्मस्थल को कई हिस्सों में बांट दिया है। इसलिए अगर यह अरुणाचल चाहता है तो क्या इसे तिब्बत के परम्परागत हिस्सों आमदो और पूर्वी खाम को पहले वापस नहीं कर देना चाहिए।

समूचे भारत के लिए यह शर्म की बात है कि चीन के साथ संबंधों में हमने 'कोल्ड वार' नहीं वरन 'कोल्ड पीस' की नीति अपना रखी है। वह सीमा पर लगातार कब्जे और घुसपैठ की नीति अपनाता रहा है, लेकिन भारत की मुद्रा हमेशा रक्षात्मक ही रही है। चीनी, कश्मीर में 12 मील तक घुसकर टेंट लगाकर आराम फरमाते रहते हैं और हम असहाय बने दूसरों का मुंह देखने का काम करते हैं। जबकि चीन की भारत नीति स्पष्ट है कि वह बिना किसी रक्तपात के जीत हासिल करना चाहता है। बिना किसी हमले के भारत पर कब्जा करने की नीति उसका एक प्रमुख उद्देश्य रहा है जोकि इसने 1962 के युद्ध के पहले से ही अपना रखी है।

इस बात को न तो पंडित नेहरू समझ पाए और न ही आज का नेतृत्व। संसद में रक्षामंत्री कहते हैं कि सिर नहीं झुकने देंगे जबकि सीमा पर जवानों के सिर काट लिए जाते हैं। हमारी कमजोरी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि चीन सारी दुनिया में अरुणाचल को अपना भाग कहने में नहीं शर्माता लेकिन हम यह भी नहीं कह पाते हैं कि उसने तिब्बत पर अवैध कब्जा कर रखा है। हम यह नहीं कह पाते है कि इसने अक्साई चिन पर कब्जा किया है। हम यह नहीं कह पाते कि यह हमारी वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगी 2400 मील लम्बे भूभाग को हथियाना चाहता है और इस तरह यह नए-नए भूभागों पर दावा करता जाता है। अनिर्णीत सीमा विवाद को ही चीन ने अपने फायदे का सौदा बना लिया है जबकि हम चुपचाप अपनी जमीन पर उनका कब्जा देखकर भी चुप रहते हैं। इसे भारत की कायरता नहीं तो और क्या कहा जाए?

पीएलए बर्फीले हिमालयी क्षेत्र में घुसपैठ के जरिए और तिब्बत में सैन्य तैयारियों के चलते अपने रेल सम्पर्क को पाक अधिकृत कश्मीर, नेपाल, म्यांमार और बांग्लादेश तक बढ़ाना चाहता है। इसने कारोबार, सहायता, संसाधनों के संग्रह, बुनियादी संरचानाओं के विकास, हथियारों की बिक्री और नौसैनिक अड्‍डों को बढ़ाए जाने की नीति के तहत दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में अपने सामरिक दायरे को बढ़ा लिया है लेकिन भारत की रक्षा तैयारियां नई दिल्ली की नौकरशाही और आर्थिक बाधाओं के चलते आगे ही नहीं बढ़ पाती है। भारत ने सीमावर्ती क्षेत्रों में चीन की मौजूदगी के खिलाफ जो उपाय अपनाए हैं, उन्हें पीएलए के सैनिक सीमा में घुसकर टेंट लगाने, फ्लैग मार्च करने, बंकरों को नष्ट करने और निगरानी कैमरों को छीनने का काम कर निष्क्रिय बता देते हैं।

यह देंग शियाओ पिंग के जमाने में 'हाइड एंड बाइड' (छिपकर मौके का इंतजार करने की नीति) को छोड़कर सीजिंग अपॉरचुनीटीज (मौकों को पैदा करने में) नीति में विश्वास करने लगा है। इसके साथ ही चीन दुनिया को अपनी सैन्य क्षमताओं को भी दर्शाता रहता है, आर्थिक ताकत के बल पर पेइचिंग के पक्ष में स्थितियां पैदा करता है। वहीं भारतीय अगर अपनी जमीन को वापस जीत लेते हैं तो उसी के विजय दिवस मनाते रहते हैं। यह हमारी और चीनी मानसिकता का अंतर है। हम स्टेटस-को (यथास्थिति वाद) के शिकार हैं तो चीनी फॉरवर्ड पॉलिसी में यकीन करते हैं। हमें यह बात सोचनी होगी कि एशिया में कभी ऐसा समय नहीं आने वाला है जब भारत और चीन समान रूप से मजबूत हो रहे होंगे। इसलिए जब चीन पहले से ही मजबूत है तो भारत को अपनी मजबूती की फिक्र करनी होगी ताकि चीन से सीधे युद्ध के दौरान हमारी हालत 1962 जैसी ना हो।

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