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जीवन को अभिनय समझो

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माँ अमृत साधना

हाल ही में 'ओम शांति ओम' फिल्म में अभिनेता मनोज कुमार के चित्रण को लेकर जो विवाद चला उसे पढ़कर मुझे वे दिन याद आए जब मनोज कुमार और मुंबई फिल्म जगत के अन्य कई कलाकार ओशो से जुड़े थे।

उस समय ओशो थे आचार्य रजनीश और जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन पढ़ाते थे। वहाँ से वे अक्सर मुंबई आया करते थे और मुंबई की फिल्मी हस्तियाँ उनसे बहुत प्रभावित थीं। इतनी अधिक कि मनोज कुमार, संगीत निर्देशक कल्याणजी और अन्य लोग ओशो की गोष्ठियाँ अपने घर करवाते थे। वह समय वही था जो 'ओम शांति ओम' के पूर्वार्द्ध में दिखाया गया है सत्तर का दशक।

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वैसे इस फिल्म ने एक बात अच्छी की है कि उस भूले-बिसरे युग का द्वार नई पीढ़ी के लिए खोल दिया। जिस तरह फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' ने महात्मा गाँधी को नई पीढ़ी के दिल में जगह दी, उसी तरह इस फिल्म ने सत्तर के दशक को देखने और समझने का नजरिया आज की पीढ़ी को दिया।

हालाँकि फिल्म के उस माहौल को देखते समय बुजुर्गों के पास ढेर सारा सेंस ऑफ ह्यूमर अर्थात विनोद बुद्धि का होना बहुत जरूरी है, नहीं तो उन्हें लगेगा कि उस दौर का मजाक उड़ाया जा रहा है। मेरी दृष्टि में ऐसा महसूस होना अच्छा है। यदि फिल्म इतिहास के उस समृद्ध दशक का तथ्यगत चित्रण आज हास्यास्पद लगता है तो उसका मतलब एक ही है कि हमारी दृष्टि पूरी की पूरी बदल गई है।

यह स्वागत करने योग्य है। हमारे जज्बात, उनकी अभिव्यक्ति, वस्त्र-परिधान, सबकुछ बदल गया है। आज का आदमी मानसिक रूप से बिलकुल नए माहौल में जी रहा है। वह समय भावुकता का था, आज बौद्धिकता और शारीरिकता का जमाना है। आज के युवक-युवतियाँ जिस तरह अंगों को मरोड़कर तेज गति से थिरकते हैं उसकी कल्पना भी उस समय संभव नहीं थी। आज के नायक- नायिकाएँ आहें नहीं भरते, सीधे एक्शन करते हैं। रोमांस की जगह अब सेक्स ने ले ली है।

उस सत्तर के दशक में ओशो फिल्म वालों के अंतरंग दोस्त थे, क्योंकि ये सब लोग रचनात्मक बुद्धिजीवी थे, उनके पास बुद्धिमान प्रश्न होते थे नीति, संस्कृति, साहित्य, मनोविज्ञान और सिनेमा को लेकर। और ओशो इतने तरल और प्रज्ञापूर्ण थे कि उनसे बातचीत करना एक आनंद यात्रा मालूम होती थी।

आज इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि शीर्ष संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी ओशो के निकट दोस्तों में से थे। जिन्होंने कल्याणजी भाई को करीब से देखा होगा, वे उनके मसखरेपन से अच्छी तरह वाकिफ होंगे। यही धागा था जिसने उन्हें ओशो से बाँधा। कल्याणजी यूँ तो साधु-संतों से बचकर रहते थे, क्योंकि साधु-संत बहुत गंभीर हुआ करते थे, फिल्म लाइन को हिकारत से देखते थे।

फिल्म यानी पैसा, वासना और विलास का खेल माना जाता था। लेकिन ओशो को इन सबसे कभी परहेज नहीं था। उनका बुद्धत्व संसार से प्रेम करता था। जहाँ भी सृजन था वह उन्हें ईश्वरीय लगता था, क्योंकि उनकी दृष्टि में ईश्वर एक महासर्जक है। कल्याणजी के एक मित्र उन्हें आग्रहपूर्वक आचार्य रजनीश का व्याख्यान सुनाने ले गए।

ओशो का पहला ही वाक्य 'अमेरिका चाँद पर जा रहा है और भारत रामलीला देखने जा रहा है।' कल्याणजी भाई की विकेट ले गया। फिर ओशो का सेंस ऑफ ह्यूमर, उनका आधुनिक अप्रोच, दोस्ताना ढंग सबकुछ कल्याणजी के माकूल था। बस, कल्याणजी और ओशो की कुंडली मिल गई। फिर तो वे अपने घर ओशो को बुलाकर उनकी गोष्ठियाँ आयोजित करते, साथ में अपनी मित्र मंडली को भी बुलाते।

अब कल्याणजी की मित्र मंडली यानी पूरा फिल्म जगत। उसमें गीतकार इंदीवर थे, नरेन्द्र शर्मा, अभिनेता महिपाल और मनोज कुमार भी थे। कुछ गोष्ठियाँ तो मनोज कुमार ने अपने घर भी करवाई थीं। उसकी रिकॉर्डिंग आज भी मौजूद है। हरिवंशराय बच्चनजी भी ओशो के अंतरंग मित्रों में से थे। बच्चनजी की मधुशाला को ओशो उमर खय्याम की रुबाइयात से कम नहीं मानते थे।

सत्तर के दशक में एक नवोदित अभिनेता ओशो का आशीर्वाद लेने आया था, उसे ओशो ने यह संदेश दिया 'अभिनय ऐसे करो जैसे जीवन हो, और जीवन ऐसे जियो जैसे अभिनय हो।' वे अभिनेता विनोद खन्ना थे। लगता है नए-पुराने सभी अभिनेता-अभिनेताओं के लिए यह संदेश गाँठ बाँध लेने जैसा है।

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