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अत्यंत सामयिक थी प्रधानमंत्री की जापान यात्रा

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शरद सिंगी

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पिछले सप्ताह हमारे प्रधानमंत्री जापान और थाईलैंड की महत्वपूर्ण यात्रा करके लौटे। जापान की यात्रा सामरिक दृष्टि से बहुत जरूरी थी क्योंकि यह यात्रा चीन की लद्दाख में घुसपैठ और चीन और जापान के बीच चल रहे सीमा विवादों की पृष्ठभूमि में हुई। इसके महत्व का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के मुख पत्र पीपुल्स डेली ने इस यात्रा को विशेष रूप से अहमियत देकर छापा। भारत को सलाह दी कि जापान के साथ किसी भी प्रकार का सहयोग करना मुसीबतों को आमंत्रित करना है वहीं जापान के राजनेताओं को 'तुच्छ चोर' तक की संज्ञा दे डाली।

चीन, जापान को लेकर इतना परेशान क्यों है? इसको समझने के लिए थोड़ा जापान के इतिहास पर नज़र डालना होगी। जापान की कहानी, मौर्य वंश के सम्राट अशोक की तरह है। मगध के इस चक्रवर्ती सम्राट ने अपने साम्राज्य को पश्चिम में अफगानिस्तान, पूर्व में आज के बांग्लादेश सहित आसाम और दक्षिण में कर्नाटक तक फैलाया। अंत में कलिंग (अब उड़ीसा) युद्ध में हुए नरसंहार से विचलित होकर बौद्ध धर्म को अंगीकार किया तथा भविष्य में कभी युद्ध न करने का निर्णय लिया।

इतिहास ने हर बार आततायी साम्राज्यवादियों के इरादों को ध्वस्त किया है किन्तु हर बार वे चेहरे बदल-बदल कर सामने आ जाते हैं
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कलिंग की लड़ाई के पश्चात् उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह लोक हित और बौद्ध धर्म के विस्तार में लगा दिया। जापान की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। अपनी औद्योगिक और आधुनिक सैन्य शक्ति के बूते पर उन्नीसवीं सदी के अंत में जापान की साम्राज्यवादी इच्छाएं जागृत हुईं। पहले कोरिया में व्यापार को लेकर चीन से युद्ध हुआ और चीन को कोरिया से खदेड़ा। उत्तर पूर्वी चीनी सीमा को नियंत्रण में ले लिया। इसी सीमा को लेकर रूस से भी युद्ध हुआ और अपने से कई गुना बड़े रूस को पछाड़ दिया। कोरिया को अपना उपनिवेश बना लिया और फिर चीन के अन्दर लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा। इस तरह जापानी सेना आगे बढ़ती गई और एशिया के देशों पर कब्ज़ा करती गई।

अंत में जब जापान ने अमेरिका पर हमला बोला तो अमेरिका भी द्वितीय विश्वयुद्ध में कूद गया। हमले के जबाब में अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए। उससे हुए विनाश की विभीषिका ने जापान को न केवल हथियार डालने पर मजबूर किया अपितु उसने अपनी राष्ट्रीय रक्षा नीति में ही आमूल परिवर्तन कर दिया। किसी भी देश पर अपनी ओर से हमला न करने का तथा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल न करने का संवैधानिक प्रावधान किया।

अमेरिका से रक्षा संधि की और अपनी पूरी शक्ति, आर्थिक समृद्धि और औद्योगिक विकास में लगा दी। कुछ ही वर्षों में द्वितीय विश्व युद्ध में नेस्नाबूत हुआ राष्ट्र दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन गया। इस तरह जापान मगध राज्य की तरह एक साम्राज्यवादी शक्ति से आर्थिक शक्ति और शांति के प्रतीक के रूप में संसार में उभरा।

पिछले दो वर्षों में स्थितियां वापस बदल रही हैं। चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद की वज़ह से जापान की राष्ट्रवादी ताकतें रक्षा नीति पर पुनर्विचार चाहती हैं। इस तरह एक सोए हुए शेर को जगाने की कोशिशें की जा रही है। विडम्बना है कि पृथ्वी पर शांति दूत कम पैदा हुए और इंसानियत के दुश्मन ज्यादा। इनकी व्यक्तिगत सनक और महत्वाकांक्षाए सर्वोपरि रही वहीँ सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक हित गौण।

इतिहास ने हर बार आततायी साम्राज्यवादियों के इरादों को ध्वस्त किया है किन्तु हर बार वे चेहरे बदल-बदल कर सामने आ जाते हैं। दुनिया में युद्ध की योजना के लिए ज्यादा धन खर्च किया जाता है और शांति की स्थापना के लिए कम। परमाणु आयुधों पर निगरानी रखने वाली स्वीडन की एक कंपनी सिपरी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष चीन और पाकिस्तान ने अपने परमाणु शास्त्रों में लगभग दस दस शास्त्रों का इजाफा किया और इनकी रफ़्तार को देखते हुए भारत ने भी अपने शस्त्रागार में इतने ही आयुधों की वृद्धि की।

विधाता ने सृष्टि बनाई और मनुष्य के पैदा होते ही उसे उसके दोहन के अधिकार मिले किन्तु मनुष्य ने इसके विनाश पर ज्यादा खर्च किया बजाय इसको संरक्षित रखने के। जरूरी है कि जिम्मेदार और शांतिप्रिय शक्तियां साथ हों ताकि कोई भी साम्राज्यवादी शक्तियां सीमाओं पर दुस्साहस न कर सकें। सामरिक सहयोग से शक्ति संतुलन के लिए भारत को जापान जैसे मित्र देश चाहिए जिससे साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं अपना फन न उठा सकें।

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