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ओबामा लहर से कल की उम्मीद

हमें फॉलो करें ओबामा लहर से कल की उम्मीद
- जेसी शर्मा
अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव का असर विश्वव्यापी होता है। हालाँकि दूसरी शक्तियाँ उभर रही हैं, लेकिन अमेरिका अब भी विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है और एक सबसे बड़ी तकनीकी ताकत है। निकट भविष्य में अमेरिका को चुनौती देने की स्थिति में फिलहाल कोई नहीं है, क्योंकि किसी के पास भी इतना बड़ा वैज्ञानिक और तकनीकी आधार नहीं है। इसलिए जब अमेरिका में चुनाव होता है तो उस पर सबकी नजर रहती है।

इस चुनाव से हरेक देश अपने-अपने स्तर पर प्रभावित होता है। इस चुनाव को लेकर
  अगर ओबामा मैदान मार लेते हैं तो यह पाकिस्तान के लिए कोई अच्छी खबर नहीं होगी, क्योंकि जिस पैसे का इस्तेमाल वह अपने दूसरे हितों को साधने और अपने पड़ोसियों के खिलाफ कर रहा है      
अमेरिका में ही बड़ी जिज्ञासाएँ हैं। जिस देश में गुलामी की लंबी प्रथा रही हो वहाँ इस चुनाव को एक बड़े परिवर्तन के सूचक के तौर पर देखा जाना स्वाभाविक भी है। जैसे, भारत में यदि कोई दलित प्रधानमंत्री बन जाता है तो उसे सामाजिक और वैचारिक स्तर पर एक बड़ा बदलाव माना जाता है, ठीक उसी तरह का माहौल इस समय अमेरिका में है, क्योंकि ओबामा को लेकर अच्छी-खासी लहर है। माना जा रहा है कि यह चुनाव अमेरिका में एक बदले हुए रंग का इतिहास रचने जा रहा है।

जहाँ तक दक्षिण एशिया की बात है तो उसके लिहाज से भी यह चुनाव बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिका के लिए दक्षिण एशिया का खास महत्व है, सामाजिक दृष्टि से ही नहीं सामरिक दृष्टिकोण से भी। इस चुनाव का दक्षिण एशिया पर बड़ा असर होगा। एक तो इस समय अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान में डेरा डाला हुआ है और दूसरे अमेरिका की नजर में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के रूप में इस्लामी आतंकवाद का केंद्र भी दक्षिण एशिया में ही है। 9/11की घटना के बाद से इस्लामी आतंकवाद अमेरिका का सबसे बड़ा एजेंडा बन गया है।

कहते हैं कि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान या अफगानिस्तान में कहीं छुपा हुआ है, जो आतंकवाद के मोर्चे पर अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती और सरदर्र्द है। ऐसे में भारत के लिए कोई बहुत ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है। चिंता की बात पाकिस्तान के लिए है, क्योंकि ओबामा का रुख पाकिस्तान को लेकर अपेक्षाकृत सख्त है। वे पहले कह भी चुके हैं कि आतंकवाद उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है और अगर जरूरत पड़ी तो अमेरिकी सेनाएँ पाकिस्तानी सीमाएँ पार करने में भी नहीं हिचकेंगी।

यदि ऐसा होता है तो यह घटना दक्षिण एशिया के लिए ही बड़ी नहीं होगी, भारत के लिए भी इसके खास मायने होंगे। दूसरे, अब जब यह खुलासा हो चुका है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए जो पैसा अमेरिका पाकिस्तान को देता रहा है, उसका इस्तेमाल वह अपने दूसरे हितों को साधने के लिए कर रहा है, अमेरिका पाकिस्तान को लेकर और ज्यादा सख्त हुआ है। अगर ओबामा मैदान मार लेते हैं तो यह पाकिस्तान के लिए कोई अच्छी खबर नहीं होगी, क्योंकि जिस पैसे का इस्तेमाल वह अपने दूसरे हितों को साधने और अपने पड़ोसियों के खिलाफ कर रहा है, उस पर कई तरह की नजरें होंगी और सख्ती होगी। यह सख्ती पाकिस्तान को बेचैन कर सकती है।

इससे जुदा भारत और अमेरिका कई मोर्चों पर नजदीक आए हैं। भारत एक बड़ा बाजार ही नहीं है, इस क्षेत्र की एक बड़ी ताकत है और अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति या कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि भारत से उसकी दूरियाँ बढ़ें । पिछले दिनों हुआ परमाणु करार भी इस बात की गवाही देता है कि अमेरिका भी भारत से दोस्ताना रिश्ते बढ़ाना चाहता है। बुश की एक बड़ी कामयाबी यही है कि वे भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने में कामयाब रहे हैं, हालाँकि इसकी बुनियाद पिछले राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने रखी थी। इस चुनाव में जीत किसी की भी हो, लेकिन भारत को लेकर नीतियों में कोई बहुत बड़ा अंतर आने वाला नहीं है। दोनों का रुख भारत को लेकर सकारात्मक है।

वैसे, ओबामा और मेकेन के बीच अनेक मामलों को लेकर मतभेद हैं और बहुत से मोर्चों और मुल्कों को लेकर उनकी नीतियों और दृष्टिकोण में भी अंतर है। जैसे ओबामा और मेकेन में आउटसोर्सिंग को लेकर मतभेद हैं, व्यापार संरक्षण को लेकर अंतर है, जलवायु परिवर्तन को लेकर भी दोनों का सोच अलग और ईरान-पाकिस्तान गैस पाइप लाइन के बारे में भी दोनों उम्मीदवारों के विचार मेल नहीं खाते। ईरान को लेकर तो बहुत से मोर्चों पर दोनों के विचार अलग हैं, नीतियों में भी फर्क है।

जैसे, ओबामा ईरान से बातचीत के पक्ष में हैं। ऐसे में अगर ओबामा जीत जाते हैं और ईरान से बातचीत की पहल करते हैं तो यह देखना जरूरी होगा कि ईरान की इस पहल पर क्या प्रतिक्रिया होगी। अगर अमेरिका की पहल पर ईरान सकारात्मक रवैया दिखाता है तो इससे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में व्याप्त तनाव में कमी आ सकती है, लेकिन ओबामा और मेकेन दोनों ही नहीं चाहते कि ईरान एक परमाणु शक्ति के रूप में उभरे।

इस मुद्दे पर दोनों में एका है, लेकिन इतना तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि
  हर देश और दृष्टि से महत्व रखने वाले अमेरिकी चुनाव को लेकर एक दूर की कौड़ी यह है कि क्या निकट भविष्य नहीं, एक डेढ़ दशक बाद ऐसा हो सकता है कि कोई भारतीय अमेरिकी इस पद तक पहुँच जाए या कि कोई महिला अमेरिका की राष्ट्रपति बन जाए      
इस चुनाव में जिस भी उम्मीदवार की जीत होती है, उसका काम बेहद चुनौतीपूर्ण रहेगा। दरअसल, दक्षिण एशिया, इस्लामी आतंकवाद और ओसामा बिन लादेन से बड़ी चुनौती जिसने पूरे विश्व को अछूता नहीं छोड़ा है वह है- आर्थिक मंदी और अर्थव्यवस्था। विश्वभर की दरकती अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिका कोई अपवाद नहीं है। वहाँ भी हालात बहुत बुरे हैं।

इसलिए जीतकर आने वाले किसी भी उम्मीदवार के सामने अर्थव्यवस्था बड़ी चुनौती होगी। बहुत से अंतरराष्ट्रीय समीकरण इस बात पर भी निर्भर करेंगे कि कौन इस चुनौती से कैसे और कितना उबर पाता है। यह सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था की नींव हिल चुकी है, जिसे दोबारा वही मजबूती देना आसान न होगा। इस तरह जीतने वाले उम्मीदवार के लिए यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति भी है।

हर देश और दृष्टि से महत्व रखने वाले अमेरिकी चुनाव को लेकर एक दूर की कौड़ी यह है कि क्या निकट भविष्य नहीं, एक डेढ़ दशक बाद ऐसा हो सकता है कि कोई भारतीय अमेरिकी इस पद तक पहुँच जाए या कि कोई महिला अमेरिका की राष्ट्रपति बन जाए। यह बात इसलिए जेहन में आती है कि जब बहुत छोटे राजनीतिक करियर वाले ओबामा यहाँ तक पहुँच सकते हैं तो कोई भारतीय क्यों नहीं? हर जगह भारत का दबदबा बढ़ रहा है और अमेरिका में भी भारत के चाहने वाले कम नहीं हैं। वैसे, अमेरिका में भारतीय मूल के जितने भी राजनीतिज्ञ हैं बॉबी जिंदल उनमें सबसे आगे हैं। फिर राजनीति में तो कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है कल कोई कुशाग्रबुद्धि भारतीय विश्व की महाशक्ति का स्वामी बन जाए।

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