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क्या न्याय खरीद-फरोख्त की वस्तु है?

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सुरेश बाफना

बीएमडब्ल्यू मामले में एक टीवी चैनल द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने देश के दो बड़े वकील आरके आनंद व आईयू खान को न्याय के कठघरे में खड़ा कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस आरोप को सही पाया कि इन्होंने बीएमडब्ल्यू हिट एंड रन मामले में गवाह को खरीदने की कोशिश कर न्याय प्रक्रिया में गंभीर बाधा डाली है।

आजाद भारत में शायद यह पहली घटना है कि देश के दो वरिष्ठ वकील गवाह खरीदने जैसा जघन्य अपराध करते हुए रंगे हाथ पकड़े गए। आरके आनंद तो अपने उद्योगपति मुवक्किल व आरोपी संजीव नंदा की दलाली कर रहे थे, लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि अभियोग पक्ष के वकील आईयू खान ने आरोपी के साथ मिलकर न्याय व्यवस्था को कलंकित कर दिया।

  राजनीतिक दलों की विफलता के बाद देश के गरीबों को अभी भी न्यायपालिका में गहरा विश्वास है। समाज के कमजोर वर्गों से जुड़े कई मामलों में अदालतों ने प्रशंसनीय फैसले दिए हैं      
इस मामले में आशा की किरण यह है कि एक टीवी चैनल के संवाददाता ने अपनी जान का जोखिम उठाकर इस साजिश का भंडाफोड़ किया। वही दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपनी पहल पर मामले की सुनवाई कर दोनों वकीलों को सजा सुनाई। इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि हमारी न्याय व्यवस्था कैंसर से ग्रस्त हो गई है। नशे में धुत उद्योगपति संजीव नंदा की कार से कुचले गए सात लोगों में तीन पुलिस कांस्टेबल थे। अन्य मृतक फुटपाथ पर सोए हुए थे। इस मामले के दो प्रत्यक्षदर्शी गवाह अदालत में पलट गए। तीसरे गवाह सुनील कुलकर्णी के माध्यम से टीवी चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन किया।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि धन के बल पर गवाहों को खरीदा जाता है और यदि धन काम नहीं करता है तो बाहुबल का सहारा भी लिया जाता है। यह धारणा गलत नहीं है कि जिसके पास धन व बाहुबल होता है, न्याय उसी के पक्ष में होता है। टीवी चैनल ने एक मामले में स्टिंग ऑपरेशन करके इस सड़ांध को सार्वजनिक कर दिया है।

अब सवाल यह है कि इस भंडाफोड़ के बाद क्या? दुखद बात यह है कि न्याय की प्रक्रिया में बाधा डालना या अदालत में शपथ लेकर झूठ बोलना कोई गंभीर अपराध नहीं है। यदि अमेरिका या यूरोप के किसी देश में ऐसी घटना होती तो इन दोनों वकीलों को जेल की हवा खानी पड़ती। शपथ लेकर झूठ बोलने के आरोप में प्रसिद्ध लेकर जेफरी आर्चर को जेल जाना पड़ा था।

भारतीय दंड संहिता में इस अपराध की कल्पना ही नहीं की गई है कि अभियोजक पक्ष का वकील बचाव पक्ष के वकील से मिलकर आरोपी को बचाने के गोरख धंधे में शामिल हो जाएगा। सांसदों के बाद अब वकील भी बिकाऊ वस्तु बन गए हैं। इस सवाल पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है कि न्याय प्रणाली को भ्रष्टाचार, धन व बाहुबल के कुप्रभाव से कैसे मुक्त किया जाए?

राजनीतिक दलों की विफलता के बाद देश के गरीबों को अभी भी न्यायपालिका में गहरा विश्वास है। समाज के कमजोर वर्गों से जुड़े कई मामलों में अदालतों ने प्रशंसनीय फैसले दिए हैं, लेकिन यह भी सच है कि हमारी न्याय प्रणाली इतनी महँगी है कि गरीब आदमी अदालत में प्रवेश करने से ही घबराता है। गरीबों को कानूनी सहायता देने की सरकारी योजनाएँ उद्‍घाटन समारोह से आगे नहीं बढ़ पाई है। इस संबंध में वकीलों को भी सामाजिक जिम्मेदारी निभानी होगी।

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