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गरीब बच्चों का अँधेरा सफर...

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उमेश त्रिवेदी

दिल को दहला देने वाला यह किस्सा सिर्फ सप्ताह भर पुराना है। मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले की थांदला तहसील में 13 वर्षीय आदिवासी बालिका कुएँ में डूबकर मर गई। कुएँ में डूबना महज एक हादसा होता तो भी उसे दरकिनार किया जा सकता था, लेकिन इस हादसे के पीछे सक्रिय मानसिक-स्थितियों के कारण उसे अनदेखा करना भी संभव नहीं है।

ये मानसिक स्थितियाँ सवाल-दर-सवाल लंबी श्रृंखला बनाती हैं जिनके उत्तर ढूँढना आज की भी जरूरत है और भविष्य की भी। घटना मेघनगर विकासखंड के एक नामालूम से गाँव के एक सरकारी स्कूल की है।

यहाँ पढ़ने वाली आदिवासी लड़की जोसना को उसके शिक्षक रोजाना अपने पीने का पानी लेने के लिए एक कुएँ पर भेजते थे। पानी निकालने के दौरान वह कुएँ में गिर पड़ी। जब तक उसे निकाला गया, वह दम तोड़ चुकी थी।

दिलचस्प यह है कि स्कूल के पास ही दो हैंडपंप चालू हालत में मौजूद हैं। फिर उस मासूम बच्ची को रोजाना कुएँ से पानी लाने की ड्यूटी पर लगाना क्यों जरूरी था? ऐसा ही एक किस्सा मंडला जिले का है, जहाँ एक चौदह वर्षीय बच्ची को दिल्ली के घर में काम करने के लिए भेजा गया। कई महीनों तक उसकी खबर नहीं आई और आज वह लापता है।

कलम पसीजने लगती है, जब हम देश के उन गरीब बच्चों की ओर नजर घुमाते हैं, जो आज भी समाज के अँधेरे कोनों में दुबके जिंदगी जी रहे हैं और उस भविष्य में भी उनके लिए कोई जगह नजर नहीं आ रही है जिसकी इबारत हम सोने की लकीरों से लिखने का दावा कर रहे हैं। नामालूम से बच्चों की त्रासदी के ये हादसे अर्से से हो रहे हैं। ये भविष्य में भी घटते रहेंगे।

ऐसी घटनाओं पर हम पहले भी निर्विकार थे, और आज भी भावशून्य हैं। क्यों...? शायद ये 'क्यों' हमको, हमारे मानस को, हमारे अंतस को कभी भी कुरेदता नहीं है, क्योंकि ये किस्से दूरदराज आदिवासी गाँव की मैली-कुचैली, फटेहाल बेटी जोसना, कुंजा, साँवरी या अतरकली के साथ घट रहे हैं अथवा झुग्गी-झोपड़ी के गरीब बच्चों को निशाना बना रहे हैं।

ये घटनाएँ सोनम, पूनम, सोनाली या मीनाली जैसी पाँच सितारा शहरों की पाँच सितारा बेटियों के साथ नहीं हो रही हैं कि समूची व्यवस्था अथवा मीडिया हिल उठे। गरीबी-अमीरी, संपन्नता-विपन्नता और अँधेरे-उजाले का यही फर्क, यही बँटवारा और यही जड़ता समाज और व्यवस्था की संवेदनशीलता और सक्रियता को सवालिया बनाते हैं।

इस फर्क ने समूची प्रक्रिया को ही उलट-पलट दिया है कि हम चलते आगे हैं और पहुँचते पीछे हैं। यह त्रासदी समय के साथ भी घटित होने वाली है, जबकि देश के सूत्रधार व्यवस्थाओं को लेकर बढ़ेंगे तो इक्कीसदीं सदी की ओर, लेकिन खुद को खड़ा पाएँगे उन्नीसवीं सदी से भी बदतर हालात में...। कारण साफ है कि हम उन लाखों-करोड़ों बच्चों को अनदेखा कर रहे हैं, जो भविष्य में समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा होंगे।

हमारे यहाँ गरीब बच्चों की स्थितियाँ ठीक नहीं हैं। इसके कारण पता लगाने के लिए बहुत गहराई में भी जाने की जरूरत नहीं है। हमारे सोच का फर्क इसे साफ कर देता है। आदिवासी गाँव की जोसना या साँवरी का कुएँ में डूबना या गायब हो जाना हमारे अंतस को उतनी जोर से नहीं हिलाता है, जितना कि सोनम या पूनम का डूबना या गायब होना...।

शहर में बैठकर बच्चों के लिए जो सोचा और किया जाता है, भले ही उतनी ही आदर्श स्थितियाँ निर्मित नहीं की जा सकें, लेकिन उतनी ही संवेदनशीलता से देहाती बच्चों के बारे में सोचा जाना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है। सोच की यह दिशा तभी संभव है, जबकि गँवई जोसना या कुंजा में हम शहरी सोनाली या मीताली का चेहरा देखें।

गरीब बच्चों के दर्द पर भी हमें अपने बच्चों के दर्द जितना ही विचलित होना चाहिए। यह समाज, खासतौर से मध्यमवर्गीय नीति-नियंता जब तक गरीब, साधनहीन बच्चों के चेहरे पर अपने बच्चों का चेहरा नहीं देखेंगे, उनके दर्द को अपने बच्चों के दर्द जैसा नहीं पढ़ेंगे, उनकी जरूरतों को अपने बच्चों की जरूरतों से नहीं तौलेंगे, उनकी काँटों की चुभन को अपने बच्चों की फाँस जैसी महसूस नहीं करेंगे, तब तक बाल कल्याण की योजनाएँ कागजों पर तो तेजी से दौड़ती रहेंगी, लेकिन खेत-खलिहान और देहातों की जमीन पर टूटे-फूटे और खंडहर आकारों में ही सच होती नजर आएँगी।

जोसना जैसी लड़कियों का असमय मौत का शिकार होना बड़ा सवाल खड़ा करता है कि बच्चों की दुर्दशा को दुरुस्त करने के लिए सतर्क, सजग और संवेदनशील प्रयासों का सिलसिला कब प्रारंभ होगा? समाज के ऊँचे टीलों पर खड़े होकर यदि हमने गरीब बच्चों के हालात और हाहाकार को अनसुना कर दिया, तो यह क्रंदन 'आज और कल' दोनों को ही शून्य से भर देगा। उनकी जिंदगी के लिए जल्द से जल्द लंबे रास्ते बनाने की जरूरत है। बच्चों की दुर्दशा के आँकड़े इस जल्दबाजी और जरूरत को प्रतिपादित करते हैं।

भारत में कोई बारह करोड़ बाल श्रमिक शिक्षा-दीक्षा और भविष्य के अवसरों को ताक में रखकर पेट के लिए मजदूरी कर रहे हैं। वे अपना पेट भी पाल रहे हैं और साथ-साथ परिवार की मदद भी कर रहे हैं। उनके रोजगार की स्थितियाँ खतरनाक हैं। वे ऐसे उद्योगों में कार्यरत हैं, जो सीधे-सीधे जीवन से खिलवाड़ करने वाले हैं।

भूख-प्यास और गरीबी से जूझते इन बच्चों में कोई बीस प्रतिशत लड़के तो सोलह प्रतिशत लड़कियाँ भी हैं। मेहनताने में होने वाले अन्याय के साथ-साथ आपराधिक और यौन शोषण का पहाड़ भी इन बच्चों के जीवन को दूभर बनाए हुए है। बच्चों के हालात सुधरने के बजाए बिगड़ रहे हैं। सन्‌ 1981 में देश में बाल मजदूरों की संख्या कोई डेढ़ करोड़ आँकी गई थी।

1997 में यह आँकड़ा साढ़े सात करोड़ तक पहुँच गया, जो अब बारह करोड़ के आसपास घूम रहा है। जहाँ 85 प्रतिशत बाल मजदूर देहातों में खेती-किसानी का काम करते हैं, वहीं शहरों में 40 प्रतिशत बच्चे ऐसे उद्योगों में कार्यरत हैं, जहाँ किसी भी हालत में उन्हें काम नहीं करना चाहिए।

विडंबना यह है कि मजदूरी करते-करते कोई नब्बे लाख बच्चियाँ वेश्यावृत्ति की ओर मुखातिब हो चुकी हैं। भूख की परिस्थितियों ने उन्हें यौनाचार की ओर मोड़ दिया है। सामाजिक स्थितियाँ भी उतनी ही वीभत्स है। देश में हर वर्ष पाँच से सात हजार नाबालिग लड़कियों को नेपाल से लाकर सिर्फ एक हजार रुपए में वेश्यालयों में बेच दिया जाता है।

बच्चों के हालात बताते हैं कि भविष्य में सिक्कों की टकसाल बनने का दम भरने वाला यह देश कहाँ खड़ा है। उन बच्चों के लिए जो भविष्य की बुनियाद है, न खुला आकाश है, न रोशनी है। उनका अँधेरा सफर देश में कितना अँधेरा बिखेरेगा...?

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