Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

निपटने के लिए जरूरी है नया कानून

हमें फॉलो करें निपटने के लिए जरूरी है नया कानून
- अरुण जेटली

जब मैं आम लोगों के बीच होता हूँ और उनसे आतंकवाद के मुद्दे पर संवाद होता है तो कहीं कोई मतभेद नजर नहीं आता। हर व्यक्ति यही चाहता है कि आतंकवाद का सख्ती से मुकाबला किया जाए।

लेकिन दूसरी ओर राजनीतिक स्तर पर हम पाते हैं कि कुछ राजनीतिक दल वोट बैंक के चलते आतंकवाद विरोधी कानून का विरोध करते हैं। यह स्थिति तब है, जबकि सुप्रीम कोर्ट भी स्पष्ट कर चुका है कि आतंकवाद का मामला कानून-व्यवस्था से भी ज्यादा देश की संप्रभुता से जुड़ा मामला है।

मैं मानता हूँ कि कुछ लोगों को पोटा से चिढ़ हो सकती है और वह भी इसलिए क्योंकि आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा) वाजपेयी सरकार के समय में बना था। तब भी कांगे्रस और उसके समर्थक दलों ने पोटा का किस सीमा तक जाकर विरोध किया था, उसे पूरा देश जानता है। केंद्र में यूपीए सरकार ने सत्ता संभालते ही सबसे पहले पोटा को समाप्त करने का काम किया।

तभी जाहिर हो गया था कि मनमोहन सरकार की आतंकवाद से मुकाबला करन की न तो मंशा है और न ही कोई उत्साह। कोई माने या न माने, लेकिन जब पोटा खत्म हुआ तो निश्चित रूप से राष्ट्रविराधी तत्वों का उत्साह बढ़ा होगा। मैं यहाँ तक कहता हूँ कि चलो किसी को पोटा शब्द अच्छा नहीं लगा होगा तो पोटा की जगह कोई और नाम रख लेते। मैं तो मानता हूँ कि पोटा आतंकवाद समाप्त करने के लिए कारगर कानूनी अस्त्र था।

असल में तो मुझे हैरानी होती है कि देशभर में चाहे वह भाजपा शासित राज्य हों या फिर कांग्रेस या दूसरे दलों के शासन वाले प्रदेश, आतंकवाद से जनता और सुरक्षाकर्मी लगातार जूझ रहे हैं। लेकिन राजनीतिक स्तर पर आतंकवाद विरोधी कानून बनाने की जब बात की जाती है तो अलग-अलग सुर सुनाई देने लगते हैं। भाजपा नहीं चाहती कि आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर देश बँटा हुआ दिखाई दे।

आतंकवाद के मुद्दे पर वाजपेयी सरकार कितनी गंभीर थी और मनमोहन सरकार कितनी गंभीर है, इसका पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजग के शासनकाल में जब पोटा लागू हुआ था तो वाजपेयी सरकार ने पूरी कोशिश की थी कि आतंकवाद विरोधी कानून पर देश में एक राय बने। सरकार ने संसद का संयुक्त सत्र भी बुलाया, लेकिन केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने अपने साढ़े चार साल के शासनकाल में आतंकवाद के मुद्दे पर कानूनी स्तर पर कैसे लड़ा जाए, इसे लेकर कतई गंभीरता नहीं दिखाई। मनमोहन सरकार ने सिर्फ दो काम किए- एक आतंकवाद विरोधी पोटा कानून को खत्म करने का और दूसरा अफजल गुरु को फाँसी न देने का। क्या हम इस तरह आतंकवाद से लड़ेंगे?

इधर, यह मैं सुन रहा हूँ कि यूपीए सरकार के भीतर से आतंकवाद से लड़ने के लिए नई संघीय जाँच एजेंसी के गठन की बात हो रही है। मैं मानता हूँ कि यदि यह सरकार कोई एजेंसी बनाती है तो वह तभी परिणाम दे पाएगी, जब आतंकवादियों को सजा दिलाने के लिए कोई पोटा जैसा ठोस कानून होगा। कानून के बिना एक नई संघीय जाँच एजेंसी का कोई मतलब नहीं होगा। यदि हम इस जाँच एजेंसी को पुराने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) कानून के तहत कार्रवाई करने का अधिकार देंगे तो क्या फायदा होगा?

पोटा कानून बनाया ही इसलिए गया था कि आईपीसी की जिन कमियों के चलते आतंकवादी या उन्हें मदद देने वाले बच निकलते हैं, वे पोटा जैसे कानून से बच नहीं सकते। इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि आंतकवादियों को देश में कार्रवाई करने से रोकना एक बात है, और उन्हें पकड़कर सजा दिलाना दूसरी बात।

आतंकवादियों को कार्रवाई करने से पुलिस या सुरक्षाबल रोक सकते हैं, उन्हें पकड़ सकते हैं, लेकिन फिर सवाल आएगा कि आतंकवादियों को किस कानून के तहत सजा दी जाए। असल में आईपीसी के तहत फोन, इलेक्ट्रॉनिक और मौखिक संवादों को टेप करना अदालत में सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं है, जबकि पोटा में इन सब चीजों को बतौर सबूत स्वीकृति दी गई।

मगर हैरानी तब होती है, जब कुछ लोग इस तरह के सवाल भी खड़े करते हैं कि जब पोटा था तो भी संसद पर हमला हो गया। पोटा से हुआ क्या? तो मैं उन लोगों को बताना चाहता हूँ कि पोटा के तहत ही संसद पर हमला करने वाले आतंकवादियों और उनके अन्य सहयोगियों को पकड़ा जा सका था। टाडा को लेकर भी विवाद रहे होंगे, लेकिन यह भी सच है कि टाडा कानून के चलते ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के हत्यारों का जुर्म साबित हो पाया।

शायद यदि टाडा नहीं होता तो राजीव गाँधी की हत्या के आरोपी भी नहीं पकड़े जा पाते। सचाई तो यह है कि केंद्र की यूपीए सरकार आतंकवाद और आंतरिक सुरक्षा से जुड़े मसलों पर भी दोहरा रुख भी अपना रही है। इसकी एक मिसाल यह है कि भाजपा शासित गुजरात और राजस्थान राज्य की सरकारों ने अपने-अपने राज्यों के लिए विशेष कानून बनाने के संदर्भ में केंद्र को प्रस्ताव भेजे थे, लेकिन पिछले लगभग चार साल से ये प्रस्ताव फाइलों में ही दबे पड़े हैं। जबकि महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में संगठित अपराध पर काबू पाने के लिए विशेष कानून पहले से ही हैं।

जाहिर है, ऐसी स्थिति में राष्ट्र विरोधी गतिविधियाँ बढ़ेंगी। केंद्र की यूपीए सरकार के इस ढुलमुल रवैए के कारण ही देश के कुछ राज्यों में विशेष कानून लागू है तो कुछ में नहीं है। आखिर यह दोहरा भेदभाव क्यों? भाजपा के शासनकाल में कानून बना इसलिए उसका विरोध करना है यह भाव उचित नहीं। मैं कहता हूँ महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार ने मकोका नाम का जो कानून बनाया, वह हर दृष्टि से पोटा से ज्यादा सख्त है।

मकोका कानून में जमानत को कड़ा किया गया। हमने पोटा में ऐसा किया। देश के कई प्रांतों में संगठित अपराध से मुकाबला करने के लिए, जो स्थानीय अपराधी हैं, उनके गिरोह हैं, उनके खिलाफ तो कड़े प्रावधानों वाला महाराष्ट्र सरकार का कानून ठीक हो सकता है, लेकिन अगर लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों के खिलाफ हमने पोटा कानून बनाया तो वह राजनीतिक कारणों से प्रेरित हो गया, जबकि सचाई यह है कि पिछले कुछ अर्से में जो आतंकवादी घटनाएँ देश में घटी हैं, उनके आरोपियों को पकड़ा नहीं जा सका हैं।

दरअसल, होता यह है कि जब किसी कानून को राजनीति के चश्मे से देखने लगते हैं तब विवाद खड़ा होता है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि राजनीतिक स्वार्थों के कारण कुछ दल कानून को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं। आज जब देश में आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ रही हैं तो इस बात पर बहस हो रही है कि आतंकवाद से मुकाबले के लिए कानून बनाया जाए या नई एजेंसी? कुछ लोग तो पोटा का नाम सुनते ही भड़क उठते हैं जबकि आतंकवाद से प्रभावित अधिकांश देशों ने अपने यहाँ विशेष कानून बना रखे हैं।

अमेरिका में कानून है, ब्रिटेन में कानून है, यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी है। अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद वहाँ नया आतंकवाद विरोधी कानून बनाया गया तो वहाँ यह बहस आरंभ नहीं हुई थी कि रंगभेद के आधार पर कुछ लोगों के साथ अन्याय हो गया।बल्कि पूरा राष्ट्र उसके समर्थन में खड़ा हो गया यह कानून अमेरिकी सीनेट में आया तो भी उसे भी भारी समर्थन मिला।

लेकिन हमारे देश में कई राजनीतिक दल ऐसे हैं, जो कानून का समर्थन और विरोध भी एक वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर करते हैं, जबकि हम कहते हैं कि आतंकवाद विरोधी कानून का संबंध किसी एक धर्म विशेष से नहीं बल्कि देश के नागरिकों की सुरक्षा से है और जब भाजपा सुरक्षा की बात करती है तो उसमें हिन्दू-मुसलमान सहित सभी धर्मों और वर्गों के लोग शामिल होते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी एक प्रस्ताव पारित कर अपने हर सदस्य देश से आतंकवाद विरोधी विशेष कानून बनाने को कहा और उसके बाद दुनिया के अनेक देशों ने अपने यहाँ विशेष कानून बना लिए हैं मगर, हम बहस में ही उलझे हैं।
(लेखक पूर्व कानून मंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi