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न तो युद्घ विकल्प है, न संवादहीनता

-अनिल जैन

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जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से पाकिस्तानी उच्चायुक्त की हुई मुलाकात को लेकर नाराज भारत ने पाकिस्तान के साथ होने वाली विदेश सचिव स्तरीय बातचीत रद्द कर दी है। इस घटनाक्रम से दोनों देशों के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों की पुरानी कहानी में एक नया मोड़ आ गया है। हम भले ही इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम के लिए पाकिस्तान की कारगुजारियों को जिम्मेदार ठहराएं, लेकिन हकीकत यह है कि इससे दोनों मुल्कों के कट्टरपंथियों की बांछें खिल गई हैं जिन्हें हमेशा ही दोनों देशों के सामान्य होते रिश्ते रास नहीं आते हैं। उनके अपने-अपने स्वार्थ हैं, लिहाजा वे इस बात पर आमादा रहते हैं कि दोनों के बीच जैसे भी हो, तनाव का माहौल बनाया जाए।

दोनों मुल्कों के बीच बातचीत रद्द होने पर पाकिस्तान में ऐसे तत्वों को कहने का मौका मिल गया है कि भारत बातचीत के लिए कतई गंभीर नहीं है, लिहाजा उससे बात करना बेकार है। इसी तरह की बातें भारत में भी पाकिस्तान से किसी भी तरह की बातचीत की विरोधी कट्टरपंथी ताकतें कर रही हैं।

पाकिस्तानी हुकूमत से भारत की नाराजगी कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से मुलाकात को लेकर ही नहीं, बल्कि पिछले एक पखवाड़े से भी ज्यादा समय से सीमावर्ती इलाकों में पाकिस्तानी सेना की तरफ से लगातार किए जा रहे संघर्ष-विराम के उल्लंघन को लेकर भी है। हालांकि भारतीय सेना भी पाकिस्तानी सेना की उकसावेपूर्ण कार्रवाई का माकूल जवाब दे रही है। दोनों ओर से जारी गोलीबारी में दोनों ही पक्षों को जान-माल का नुकसान हो रहा है, लेकिन इस खूनखराबे से दोनों देशों की युद्घकामी कट्टरपंथी ताकतें बेहद खुश हैं और वे यही कामना कर रही हैं कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच ये सीमित झड़पें किसी तरह पूर्ण युद्घ में तब्दील हो जाए।

दरअसल, पाकिस्तानी नेतृत्व अपने सैन्य प्रतिष्ठान और कट्टरपंथी जमातों को कश्मीर के मामले में अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए पहले भी कई मौकों पर भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ताओं से ठीक पहले कश्मीरी अलगाववादियों के साथ बैठकें करता आया है, और ऐसा भी नहीं है कि भारत सरकार को यह जानकारी न रही हो। यही नहीं, भारत आने वाले हर पाकिस्तानी नेता से भी ये कश्मीरी अलगाववादी खुलेआम मिलते रहे हैं। वे राष्ट्रपति फारुक लेघारी, राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ, प्रधानमंत्री शौकत अजीज और सरताज अजीज से भी मिलते रहे हैं। इसलिए इस बार पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ उनकी बैठक से कौन-सी आफत आ रही थी। मगर इस बार भारत ने अलग रवैया दिखाया।

मोदी सरकार ने साफ कहा कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त की हुर्रियत नेताओं के साथ बातचीत सीधे तौर पर भारत के आंतरिक मामलों में दखल है, जो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यही नहीं, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने यह भी कहा, 'पाकिस्तान के सामने यही रास्ता बचा है कि वह शिमला समझौते और लाहौर घोषणापत्र के तहत शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ता के जरिये दोनों देशों के बीच चल रहे प्रमुख विवादों का समाधान ढूंढे।' इससे जाहिर होता है कि पिछले डेढ़ दशक से दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता के जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनमें मोदी सरकार को रत्तीभर भरोसा नहीं है।

वैसे पाकिस्तान की हुर्रियत से वार्ता की कई वजहें हो सकती हैं। मुमकिन है कि पाकिस्तान ने ऐसा करके भारत की नई सरकार को परखने की कोशिश की हो। अगर ऐसा है, तो उसे दो टूक जवाब मिल चुका है। पाकिस्तान का यह बयान भी गौरतलब है कि वह हुर्रियत के नेताओं से पहले भी ऐसी मुलाकातें करता आया है ताकि कश्मीर मसले पर भारत से सार्थक बातचीत हो सके। पाकिस्तान ने भारत के एतराज को नजरअंदाज करते हुए सिर्फ हुर्रियत के नेताओं के साथ बैठक ही नहीं की, बल्कि उसकी ओर से कुछ और भी संदेश भारत को दिए जा रहे हैं।

पिछले लगभग तीन सप्ताह में उसकी फौजें संघर्ष-विराम का कई बार उल्लंघन कर चुकी हैं। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। मानसून के मौसम में जब पहाड़ों पर जमी बर्फ पिघलने लगती है, तब पाकिस्तान ऊंचे पहाड़ी रास्तों के जरिये अपने यहां प्रशिक्षित आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ कराने की कोशिशें करता है। अगर पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर लगातार हो रही फायरिंग को हुर्रियत के साथ हुई वार्ता के साथ जोड़कर देखा जाए, तो साफ है कि पाकिस्तान में अब भी वे ताकतें हावी हैं, जो दोनों देशों के बीच टकराव के हालात बनाए रखना चाहती हैं। ये ताकतें और कोई नहीं, पाकिस्तानी सेना और वहां की कट्टरपंथी जमातें हैं। इस सिलसिले में यह गौरतलब है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को विपक्षी नेता इमरान खान और ताहिरुल कादिरी की तरफ से जिस तरह जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा है, उसे लेकर भी सेना मूकदर्शक बनी दिख रही है।

पाक पोषित आतंकवाद के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा के दौरान कहा भी था कि पाकिस्तान में परंपरागत युद्ध लड़ने की क्षमता नहीं है इसलिए वह आतंकवाद के जरिये भारत के साथ छद्‌म युद्ध लड़ रहा है। उनके इस बयान की पाकिस्तान में अपेक्षित प्रतिक्रिया हुई। पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री मोदी के बयान को गलत बताया। लेकिन नरेन्द्र मोदी ने जो बात कही उसमें नया क्या है, यह बात तो कई मौकों पर हमारी ओर से कही जा चुकी है और इसकी सत्यता में कोई संदेह भी नहीं है।

सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवाद का इस्तेमाल उसकी रक्षा व विदेश नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसने भारत से जब भी सीधे युद्ध लड़ा है, उसमें उसे जबर्दस्त मुंह की खानी पड़ी है। यही वजह है कि भारत को अस्थिर और कमजोर करने के लिए उसने आतंकवाद को हथियार बनाया हुआ है। इसलिए यह बात नई नहीं है, लेकिन इसे कौन कह रहा है और किस संदर्भ मे कह रहा है, ये तथ्य उसे महत्वपूर्ण बना देते हैं।

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभालने के साथ स्पष्ट कर दिया था कि वे अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते चाहते हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने अपनी सरकार के शपथ ग्रहण सामारोह में अन्य पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ ही अपने पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ को भी बुलाया था। नई दिल्ली में दोनों प्रधानमंत्रियों की गर्मजोशी से हुई मुलाकात से दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते पटरी पर लौटने की उम्मीद बंधी थी, लेकिन थोड़े ही दिनों बाद पाकिस्तान अपनी वाली पर आ गया। पहले उसने सीमा पर संघर्ष-विराम के उल्लंघन का सिलसिला शुरू किया।

इसके बाद उसके भारत स्थित उच्चायुक्त अब्दुल बसीत ने सैयद अली शाह गिलानी समेत हुर्रियत के सभी नेताओं से मुलाकात की, बावजूद इसके कि भारत सरकार ने उन्हें ऐसा करने से मना किया था। दोनों देशों के विदेश सचिवों की बातचीत की तिथि से पहले ही भारतीय विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान को साफ कर दिया था कि नई दिल्ली स्थित उसके उच्चायुक्त को कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से नहीं मिलना चाहिए, लेकिन पाकिस्तान ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस लिहाज से भारत की प्रतिक्रिया स्वाभाविक लगती है लेकिन कूटनीति के लिहाज से इसे जल्दबाजी में की गई अपरिपक्व पहल ही कहा जाएगा।

दरअसल, दोनों देशों के विदेश सचिवों की बातचीत का रद्द होना मोदी सरकार की विदेश नीति की दिशाहीनता का ही सूचक है, क्योंकि एक ओर तो वह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भारत बुलाती है, उनसे शॉल और साड़ी का आदान-प्रदान होता है और दूसरी तरफ इतना कमजोर बहाना बनाकर विदेश सचिवों की बैठक रद्द कर दी जाती है। सवाल है कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त का हुर्रियत नेताओं से मिलना क्या संसद भवन पर हमले, कारगिल में घुसपैठ, हमारे सैनिकों के सिर काटने और 26/11 के मुंबई हमले जैसी कोई संगीन घटना थी, जिसके कारण बातचीत रद्द कर दी गई? इस बातचीत के रद्द हो जाने से क्या अब भारत-पाकिस्तान संबंध अगले साल-दो साल के लिए अधर में नहीं लटक जाएंगे? क्या मोदी सरकार की इस आक्रामकता का बुरा असर अन्य पड़ोसी देशों से हमारे रिश्तों पर नहीं पड़ेगा?

यह सही है कि भारत में लोग पाकिस्तानी रवैये को लेकर आजिज आ चुके है। मुंबई हमले के बाद से पाकिस्तान के साथ स्थायी शांति का ख्वाब दूर की कौड़ी जैसा है। कुछ कट्टरपंथी लोग तो चाहते हैं कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ आर-पार वाली जंग छेड़ ही देना चाहिए। भारत सरकार कुछ समय के लिए इस्लामाबाद की ओर पीठ करके उसे नजरअंदाज करे, ऐसा चाहने वालों की तादाद भी कम नहीं है। मगर यह एक खतरनाक विकल्प भी साबित हो सकता है। पाकिस्तान जैसे आक्रामक और खुराफाती पड़ोसी की तरफ से जरा भी लापरवाह नहीं हुआ जा सकता। खासकर यह ध्यान में रखते हुए कि वह एक परमाणु हथियार संपन्न देश है, जो असफल राष्ट्र होने की कगार पर खड़ा है और जहां का एक शक्तिशाली तबका भारत को लेकर दुश्मनी पाले हुए है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के लिए कश्मीर का मुद्दा बेहद अहम और नाजुक है। हम भले ही इसे अपना आंतरिक मामला बताते रहें लेकिन न तो पाकिस्तान और न ही पूरी दुनिया ऐसा मानती है। सुनने में भले ही अच्छा न लगे, मगर वैश्विक समुदाय मानता है कि कश्मीर मुद्दे का समाधान हमें पाकिस्तान के साथ मिलकर ढूंढना होगा। फिर 1972 का शिमला समझौता भी विवादों के अंतिम समाधान के लिए द्विपक्षीय वार्ता की जरूरत को रेखांकित करता है। पाकिस्तान हुर्रियत को महत्व देकर यह जतलाना चाहता है कि वह कश्मीरियों की आवाज है। जबकि भारत का मानना है कि राज्य सरकार और वहां लोकतांत्रिक चुनावों में भाग लेने वाले विपक्षी दलों को ही कश्मीरियों का वास्तविक नुमाइंदा माना जा सकता है।

भारत का तर्क अपनी जगह बिलकुल सही है, मगर उसे प्रभावी ढंग से कश्मीरियों तक अपनी पहुंच बनाने की जरूरत है। कहा जा सकता है कि अपनी सुरक्षा के लिए हमें एक संतुलित नीति अपनानी होगी। पाकिस्तान के साथ बातचीत जारी रखते हुए अपना नियंत्रण बढ़ाने की कोशिश ही समय की दरकार है। 1991 से भारत की यही नीति रही है और इससे बेहतर समाधान अब तक कोई सरकार ढूंढ भी नहीं सकी है। शायद मोदी सरकार किसी ऐसे समाधान की तलाश में है, जिसके जरिये भारत-पाकिस्तान के बीच के विवाद को हमेशा के लिए खत्म किया जा सके। मगर इसके लिए उन्हें किस्मत या किसी चमत्कार पर ज्यादा निर्भर होना पड़ेगा।

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