Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

पाकिस्तान की तालिबान से जंग

हमें फॉलो करें पाकिस्तान की तालिबान से जंग
- कुलदीप नैयर

इस्लामाबाद में मैरियट होटल के अग्निदहन का दृश्य टेलीविजन पर बार-बार सविस्तार दिखाया गया है। वह वीभत्स स्मृति में आता है तो दिल दहला देता है। यहाँ तक कि आक्रामक मनोवृत्ति के जन भी उस दृश्य का स्मरण कर अपनी चिंता को नहीं छिपा पाते। बुद्धिजीवी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि पाकिस्तान की नवजात लोकतांत्रिक सरकार अलकायदा-तालिबान का मुकाबला नहीं कर पाएगी और अंततः सेना पर ही उसे निर्भर होना होगा और वह उसका मूल्य वसूलना चाहेगी।

लोग नहीं जानते कि अलकायदा-तालिबान ने मिलकर पाकिस्तान में कहाँ तक अपनी
  शीत युद्ध के दौरान जब वाशिंगटन मास्को पर मर्मांतक प्रहार करना चाहता था तो अमेरिका ने मजहब विरोधी सोवियत संघ को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए कट्टरपंथियों को प्रशिक्षित और शस्त्रसज्जित किया      
पैठ बना ली है। किंतु धारणा यही है कि संघीय प्रकाशित कबाइली क्षेत्र (फाटा), वजीरिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में भी काफी बड़ा क्षेत्र तालिबान के नियंत्रण में आ चुका है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि यदि वे और अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लेंगे तो उसका भारत पर क्या प्रभाव होगा? पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी की टिप्पणी 'तालिबान का हाथ ऊपर है' तो और भी अधिक हताश करने वाली है। अमेरिका भी उनसे सहमत है।

अब यह कोई छिपा रहस्य नहीं है कि पाकिस्तानी धरती पर अमेरिकी सेनाओं के हस्तक्षेप में उनकी साँठगाँठ थी। इसकी तुलना में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष का यह बयान कि पाकिस्तान की संप्रभुता पर आँच नहीं आने दी जाएगी- सुखद आश्चर्य का ही विषय है। उसकी तोपों ने अभी उस दिन अमेरिकी हेलिकॉप्टरों को भगा दिया। पाकिस्तान यह सतर्कता बरत रहा है कि उच्चतम ताकत से उसका टकराव न हो, किंतु इस्लामाबाद जो कर रहा है, वह अपनी गरिमा को अक्षुण्ण रख रहा है, और इसे सराहा जाना चाहिए।

मेरे विचार में अलकायदा-तालिबान पाकिस्तान में इलाके के तलबगार नहीं हैं। वे उत्तरी इलाकों के इच्छुक हैं जिससे उन्हें अफगानिस्तान पर फिर से कब्जा जमाने में सहायता मिलेगी, जिस पर तब तक उनका शासन था, जब तक कि राष्ट्रवादी अफगान सेनाओं ने अमेरिका की सहायता से उन्हें वहीं से नहीं धकेल दिया। दरअसल तालिबान की पैदाइश के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार है।

शीत युद्ध के दौरान जब वाशिंगटन मास्को पर मर्मांतक प्रहार करना चाहता था तो अमेरिका ने मजहब विरोधी सोवियत संघ को अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए कट्टरपंथियों को प्रशिक्षित और शस्त्रसज्जित किया। अमेरिका ने तब शीत युद्ध में विजय पा ली, जब सोवियत संघ अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ, उसके भार तले आकर ध्वस्त हो गया। वे कट्टरपंथी ही आज के तालिबान हैं और उनके पास वे हथियार हैं, जो अमेरिका ने उदारता सहित उन्हें उपलब्ध कराए थे।

भारतीय सिविल सोसाइटी को भी इस बात का अहसास है कि पाकिस्तान में अल-कायदा
  आतंकवाद निसंदेह मौत और विनाश का सृजक है। किंतु उसकी सर्वाधिक भयावह परिणति यह होती है कि जनता का विश्वास लड़खड़ा जाता है। सरकारें हर वारदात के बाद अपनी गुप्तचर एजेंसियों और अन्य उपकरण में सुराख देख सकती हैं और बेहतर करने का वादा कर सकती हैं      
की मौजूदगी की बढ़त से खतरा है। भारत के धुर-दक्षिणी राज्य केरल में अलकायदा की मौजूदगी चर्चित है और धुर उत्तर में स्थित कश्मीर में भी। एक गुप्तचर एजेंसी ने तो हाल में देश में हुए बम विस्फोटों का संबंध इस संगठन से बताया।

संभवतः इस बात को सुस्पष्ट रूप से अनुभूत नहीं किया गया कि तालिबान के विरुद्ध पाकिस्तान का युद्ध भी है। तालिबान यदि कभी पाकिस्तान से मात खाता है तो भारत की प्रथम रक्षा पंक्ति ध्वस्त हो जाएगी। तालिबान उस स्थिति में भारत की उन लोकतांत्रिक मान्यताओं, मूल्यों और उदारतावाद पर हमला करने के लिए एक अवतरण मंच पर जाएगा, जो उनकी सोच से मेल नहीं खाते। ये वही तालिबान हैं जिन्होंने समग्र सभ्य जगत के आग्रह और अनुरोध के बावजूद बामियान में बुद्ध प्रतिमा का विध्वंस किया था।

आतंकवाद तो साधन मात्र है, साध्य तो तालिबानिस्तान है। नई दिल्ली और इस्लामाबाद को मिलकर इस आपदा से संघर्ष करना चाहिए। दोनों देशों ने एक समय पर संयुक्त तंत्र की स्थापना करने का निश्चय भी किया था। दिल्ली और इस्लामाबाद में हुए विस्फोटों के बाद संयुक्त कार्यवाई की झलक मिलनी चाहिए थी। एक-दूसरे के विरुद्ध संदेह इतना गहन है कि वे उसे तब भी नहीं विस्मृत कर पा रहे जब शत्रु भीतर से भी सक्रिय है।

आतंकवाद निसंदेह मौत और विनाश का सृजक है। किंतु उसकी सर्वाधिक भयावह परिणति यह होती है कि जनता का विश्वास लड़खड़ा जाता है। सरकारें हर वारदात के बाद अपनी गुप्तचर एजेंसियों और अन्य उपकरण में सुराख देख सकती हैं और बेहतर करने का वादा कर सकती हैं। किंतु वारदात का परिणाम ऐसा होता है कि जिसकी भरपाई नहीं हो पाती, क्योंकि कतिपय समुदाय खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं।

यही दिल्ली के जाकिरबाग में मुठभेड़ के बाद हुआ है, जहाँ दो आतंकवादी और एक पुलिस इंस्पेक्टर मारा गया। 'मुठभेड़' की प्रामाणिकता पर बहस अभी भी छिड़ी हुई है। क्षेत्र के लोगों की सोच है कि यह सब नियोजित सा था। ऐसी सोच क्यों उभरती है। इसलिए क्योंकि लोगों और अधिकारियों के बीच साख का फासला है। मामला और अधिक गंभीर है। मुस्लिम और ईसाइयों को राज्य की निष्पक्षता पर भरोसा नहीं रहा।

यदि सेक्यूलर ताकतों ने मजबूती नहीं दिखाई तो इस भरोसे को मुस्लिमों और ईसाइयों में बहाल कर पाना कठिन होगा। और यह भी कि हिन्दुओं को पूर्वाग्रह से उबरना होगा, जिसमें अनेक लोग लिप्त हैं।

इस बीच एक टीवी नेटवर्क ने चार बड़े नगरों- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में एक सर्वेक्षण कराया है जिसने यह दर्शाया कि 67 प्रतिशत लोग खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। वे इस भय से ग्रस्त हैं कि वे यह नहीं जानते कि अपने घरों से बाहर आने पर उनके साथ क्या होगा। वास्तव में यह केंद्र और राज्य सरकारों पर सबसे दुखद टिप्पणी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi