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पूँजी के पुंज का फोकस बदले

हमें फॉलो करें पूँजी के पुंज का फोकस बदले

उमेश त्रिवेदी

वैश्वीकरण के दौर में निजी पूँजी के बढ़ते प्रभुत्व से आशंकित लोग रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी के इस कथन को पाखंड निरूपित कर सकते हैं कि 'मेरे लिए देश की समृद्धि ज्यादा महत्वपूर्ण है।'

इस सोच को महज इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि अरबों-खरबों की संपदा के एक ऐसे व्यावसायिक उद्योगपति का विचार है, जिसका उद्देश्य सिर्फ अपनी संपदा को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाना है, उससे ज्यादा कुछ नहीं।

प्रत्येक प्रभावशाली व्यक्ति एक विशिष्ट छवि की कैद में है। राजनेता स्वार्थों की परिधि में नजर आते हैं, तो प्रशासक भ्रष्टाचार की साँकलों से बँधे हैं। समाजसेवी के कामकाज शंकाओं से बिंधे हैं, तो व्यापारी-उद्योगपति शोषण और मुनाफाखोरी के जाल में फँसे हैं
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कतिपय तत्व इन उम्मीदों को अतिशय आशावाद की श्रेणी में रख सकते हैं कि मुकेश अंबानी की बातों को सही और ईमानदार माना जाना चाहिए, उनके सोच में सचाई और सुदृढ़ता हो सकती है। उनका सोच देश के लिए कुछ कर गुजरने के लिए अभिप्रेरित है।

समाज में प्रत्येक प्रभावशाली व्यक्ति एक विशिष्ट छवि की कैद में है। राजनेता स्वार्थों की परिधि में नजर आते हैं, तो प्रशासक भ्रष्टाचार की साँकलों से बँधे हैं। समाजसेवी के कामकाज शंकाओं से बिंधे हैं, तो व्यापारी-उद्योगपति शोषण और मुनाफाखोरी के जाल में फँसे हैं।

आम जिंदगी से जुड़े व्यक्तियों की छवि पर स्वार्थपरता, कर्तव्यविमुखता, निरंकुशता और विश्वासहीनता के काले छींटे उस घटिया कार्यशैली की देन हैं, जिसे वर्षों से अनुभव किया जाता रहा है। व्यक्तियों की भूमिकाओं से उपजे दुर्गुणों को चरित्र का अनिवार्य हिस्सा मान लिया जाना भी मुनासिब नहीं है। क्योंकि ये दुर्गुण परिस्थितिजन्य भी हो सकते हैं, जिसका व्यक्ति के निजी सरोकारों से संबंध नहीं होता है।

अच्छे व्यक्ति की सक्रियता ही अंततः समाज में सार्थकता एवं सकारात्मकता का बीजारोपण करेगी। अच्छे व्यक्ति को सक्रिय करना और उसमें सक्रिय अच्छाइयों के सामाजिक गठजोड़ को स्थायित्व प्रदान करना कठिन काम है
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हर व्यक्ति के भीतर एक 'अच्छा और एक बुरा' व्यक्ति होता है। यदि हम जिंदगी को बेहतरीन और खुशहाल रखना चाहते हैं..., यदि हम स्वयं को और समाज को ताकतवर बनाना चाहते हैं..., यदि अच्छा बनना या बनाना चाहते हैं..., यदि अच्छाइयों को चमकदार बनाना चाहते हैं..., तो हमें हर व्यक्ति में तैनात 'अच्छे व्यक्ति' से समाज के तार जोड़ना होंगे, उसे सक्रिय करने की कोशिश करना होगी, उसकी संवेदनाओं को झंकृत करने के प्रयास करना होंगे।

अच्छे व्यक्ति की सक्रियता ही अंततः समाज में सार्थकता एवं सकारात्मकता का बीजारोपण करेगी। अच्छे व्यक्ति को सक्रिय करना और उसमें सक्रिय अच्छाइयों के सामाजिक गठजोड़ को स्थायित्व प्रदान करना कठिन काम है। फिर भी इस काम को आगे बढ़ाने की कोशिशें हमारे यहाँ हमेशा होती रही हैं।

व्यक्तियों में अच्छाइयों के आविर्भाव की कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है। कई मर्तबा यह परिस्थितिजन्य होता है, तो कभी-कभी प्रेरक प्रसंग इसके प्रणेता बन जाते हैं। व्यक्ति का इतिहास, सफलताएँ, असफलताएँ, पारिवारिक पृष्ठभूमि, संस्कार और घटनाएँ-दुर्घटनाएँ भी कभी-कभी उसे इस प्रकार कचोट देते हैं कि जीवन का प्रवाह ही बदल जाता है।
इसीलिए रिलायंस इंडस्ट्रीज की 33वीं सालाना आम बैठक में मुकेश अंबानी ने जो कुछ कहा, उसे पूँजीवाद या वैश्वीकरण के आलोचक को एकदम दरगुजर नहीं करना चाहिए।

मुकेश अंबानी ने बेबाकी से कहा कि वे इन खबरों को कोई तवज्जो नहीं देते कि 'वे दुनिया के सबसे धनाढ्य व्यक्तियों में काफी ऊपर गिने जाते हैं अथवा उनकी व्यक्तिगत आय सर्वाधिक है...। उनके आसपास मौजूद स्थितियों को उन्होंने कभी भी इस नजरिए से नहीं देखा, जिस तरीके से मीडिया दिखाता रहा है।'

उन्होंने कहा- 'मैं इन रिपोर्टों से चकित हूँ, क्योंकि मैंने अपने बारे में इस तरीके से कभी नहीं सोचा, न कभी मैंने इसके लिए काम किया। जब तक इन चीजों का इस्तेमाल देश की समृद्धि और समाज की खुशहाली के लिए नहीं हो, तब तक इसका कोई मतलब नहीं है।'

मुकेश अंबानी के इस कथन पर ताली बजाना चाहिए, क्योंकि वो देश की उस अरबपति-औद्योगिक पीढ़ी का नेतृत्व करते हैं, जिसके हाथों में पूँजी की असीमित ताकत मौजूद है। वो चाहे तो देश की तकदीर और तस्वीर दोनों बदल सकते हैं।

देश में तेजी से आर्थिक विकास हो रहा है, लेकिन उससे उपजी संपन्नता टापुओं में विभाजित है। द्वीपों के आसपास गरीबी, बेजारी और लाचारी का काला समुद्र व्याप्त है, जिसे अनदेखा करना खतरनाक हो सकता है
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आज अंबानी ने यह सोचा, कल दूसरे उद्योगपति भी ऐसा ही कुछ सोचकर देश-निर्माण में आगे बढ़ सकते हैं। विचार चिंगारियों की तरह फूटते और आग पैदा करते हैं।

देश में तेजी से आर्थिक विकास हो रहा है, लेकिन उससे उपजी संपन्नता टापुओं में विभाजित है। द्वीपों के आसपास गरीबी, बेजारी और लाचारी का काला समुद्र व्याप्त है, जिसे अनदेखा करना खतरनाक हो सकता है। द्वीपों को संपन्नता के महाद्वीपों में तब्दील करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। मुकेश अंबानी का सोच समाज की बीमारियों से निपटने के लिए सक्रिय प्रयासों को उत्प्रेरक के रूप में शक्ति देना है।

आर्थिक गतिविधियों के व्यापक दायरों में यह एक न्यायसंगत, नैसर्गिक और व्यावहारिक पेशकश हो सकती है कि 'निजी-पूँजी' का पुंज उन अँधेरे कोनों पर भी फोकस हो, जहाँ भूख बिलबिला रही है..., नग्नता तांडव कर रही है, ...बेजारी तार तोड़ रही है... बेरोजगारी बदहाल कर रही है...।

निजी पूँजी और 'मार्केट-मैकेनिजम' के जरिए ऐसा तंत्र खड़ा किया जाए, जो आम लोगों की छोटी-छोटी जरूरतों को ध्यान में रखकर बाजार का आकलन करे और बाजार का संचालन करे। ऐसे प्रयासों को बल देना होगा कि निजी क्षेत्र स्वस्थ तरीके से आमजनों की जरूरतों को पूरा करने में सफल हो सके।

आर्थिक गतिविधियों के व्यापक दायरों में यह एक न्यायसंगत, नैसर्गिक और व्यावहारिक पेशकश हो सकती है कि 'निजी-पूँजी' का पुंज उन अँधेरे कोनों पर भी फोकस हो, जहाँ भूख बिलबिला रही है..., नग्नता तांडव कर रही है, ...बेजारी तार तोड़ रही है
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दिलचस्प यह है कि सकारात्मक प्रयासों की सफलताएँ उन सवालों में निहित हैं, जिनके उत्तर हमेशा ही ढूँढे जाते रहे हैं। अभी तक सरकारें इन सवालों के उत्तर ढूँढती रही हैं, सुझाती रही हैं और उन पर काम करती रही हैं। अब निजी पूँजी को भी इन सवालों पर गौर करना होगा कि आसपास दर्ज भयावह गरीबी और उसके शिकार गरीबों के बारे में वह नए तरीके से क्या कर सकती है अथवा क्या करना चाहती।

उसे सोचना होगा कि समूची टेक्नोलॉजी, 'मैनेजरियल-नो-हाऊ' और भारी निवेश क्षमताएँ होने के बावजूद हम गरीबों और अभाव को दूर करने के लिए कुछ क्यों नहीं कर पा रहे हैं। पूँजीवादी बौद्धिकता के सामने सबसे बड़ी चुनौती उन लोगों के लिए राह ढूँढना है, जो समाज के आखिरी कोने में भूख और अभाव से घिरे बैठे हैं।

वस्तुस्थिति यह है कि निजी क्षेत्र के बड़े-बड़े उद्योगों ने अभी तक गरीबी की समस्याओं का निदान ढूँढने में आंशिक रूप से ही सहयोग किया है। निजी उद्योगों ने उन सत्तर-अस्सी करोड़ गरीबों की नगण्य परवाह की है, जिनके पास दो जून रोटी भी नहीं है।

जाहिर है हमें एक ऐसा संवेदनशील, सार्थक और सकारात्मक पूँजी-तंत्र रचना होगा, जिसकी नजर समाज के हर कोने पर हो, जिसे समाज की सभी पस्थितियों का अहसास हो और उसके अनुसार काम करें। मुकेश अंबानी के शब्दों से यदि ये चिंगारियाँ फूट सकें, तो बेहतर होगा, अन्यथा भूख का काला समुद्र इतना विकराल हो सकता है कि सबको निगल जाए।

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