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बदल रहा है मुस्लिम समाज

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- रवीश कुमार

आजमगढ़ का सरायमीर। संजरपुर के व्यापारी शादाब अपने बेटे सैफ के पकड़े जाने पर छाती नहीं पीट रहे। हाय हाय नहीं मचा रहे। दिल्ली के जामिया नगर में हुए एनकांउटर में उनका बेटा सैफ दिल्ली पुलिस के हाथ लगा है। बेटे को गोली लगी है। इससे भी एक बाप भभक के नहीं रो रहा। रो भी रहा होगा तो चेहरे पर नहीं झलकता। 19 सितंबर को मीडिया से बात करते हुए शादाब संयम में हैं। कहते हैं कि ठीक से जाँच होनी चाहिए।

अगर वह दोषी है तो उसे गोली मार दी जाए। इससे कुछ दिन पहले जब तौकीर की तस्वीर अखबारों में आती है। अहमदाबाद से लेकर दिल्ली धमाकों में तौकीर की भूमिका का जिक्र होता है। उसकी माँ जुबैदा कुरैशी मीडिया को खुद बुलाती है। दो बातें दर्ज कराती हैं। बेटा बेकसूर है, मगर जाँच के बाद अगर दोषी पाया जाता है तो उसे मेरे ही सामने ऐसी सजा दी जाए कि दूसरे याद रखें। वरना उसका बेटा तो 2001 से गायब था, लेकिन आतंकवाद से नाम जुड़ा तो सबसे पहले माँ ही उसे खारिज कर रही है।

अभी तक यही होता था कि हर मुस्लिम जवान की गिरफ्तारी को फर्जी बताकर उस पर शोर मचने लगता था। इसकी पुख्ता वजहें रही हैं। इस बार चीजें बदल गईं हैं। जुबैदा और शादाब को कहना पड़ रहा है कि बेटे को गोली मार दो। यह नई आवाज है। मुस्लिम समाज आतंकवाद के खिलाफ अपने भीतर लड़ रहा है।

वह जानता है कि इस देश की जिस राजनीति ने गुजरात दंगे दिए, उसके प्रतिकार की जमीन पर आतंकवाद की फसल उग आई है। इससे पहले तक वह जैश और लश्कर को बाहर से आए हुए आतंकवादी समझकर खंडन करता रहा। यह सामाजिक दबाव ही है जो जुबैदा कुरैशी और शादाब को आगे आकर कहने को मजबूर करता है कि दोषी को सजा मिले। वो जानते हैं कि इस बार उनके साथ मुसलमान ही खड़े नहीं हैं।

इसी साल फरवरी में उत्तरप्रदेश के देवबंद में उलेमा जमा हुए थे। अलग-अलग फिरकों के उलेमा। सबका सुर एक था। इस्लाम आतंकवाद का समर्थन नहीं करता। जो इस रास्ते पर चल रहा है, वो इस्लाम को बदनाम कर रहा है। जिस वक्त दिल्ली के जामिया नगर में गोलीबारी हुई उसके तुरंत बाद मस्जिद का लाउडस्पीकर चीख रहा था। शांत रहिए। पुलिस को सहयोग कीजिए। हंगामा मत कीजिए। इस बार नहीं कहा जा रहा था कि एनकाउंटर फर्जी है। वह जानता है कि यह एक सामाजिक हकीकत है।

फर्जी है तो सबूत का इंतजार करना चाहता है। तब तक वही कह रहा है जो सब कह रहे हैं। कानून कह रहा है। अपने ऊपर अलग-अलग दौर में तरह-तरह के तोहमत झेल चुके मुस्लिम समाज इस बार इन तोहमतों को उतार फेंकना चाहता है। वह स्वीकार कर रहा है कि गुजरात दंगों में हुई नाइंसाफी ने उसके कुछ लड़कों को गुमराह कर दिया है। अच्छी बात यह है कि इसके बाद भी मुस्लिम समाज आतंकवाद के रास्ते पर गए इन नौजवानों के साथ नहीं खड़ा है। तौकीर और सैफ को उनके घर में ही समर्थन नहीं मिला।
(लेखक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े हैं)

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